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को स्व-स्व कार्यों में प्रवृत्त कराने के कारण उपष्ठम्भक (उत्तेजक) एवं चंचल कहा गया है। तमोगुण को, रजोगुण की प्रवृत्ति में प्रतिबन्धक होने के कारण गुरु एवं आवरणक कहा गया है। ('गुरुवरणकमेवतमः')
इन तीनों गुणों का प्रयोजन ‘प्रकाश प्रवृत्तिनियमार्थाः है अर्थात् इस कारिकांश के अनुसार सत्वगुण-प्रकाशार्थ, रजोगुण–प्रवृत्यर्थ तथा तमोगुण नियमार्थ प्रवृत्त होता है। सम्मिलित रुप में ये तीनां गुण बत्ती-तेल-अग्नि समन्वित प्रदीपवत एक ही पुरुषार्थरुपी प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। गुणों की साम्यावस्था प्रलय की होती है और विरुपावस्था में सृष्टि होती है।
पुरुष
सांख्य का दुसरा मूल तत्व पुरुष है। पुरुष की सत्ता स्वयंसिद्ध है। पुरुष न तो प्रकृति है न विकृति, अर्थात् न तो कारण है और न तो कार्य। 'न प्रकृतिनं विकृतिः पुरुषः ।।
पुरुष का स्वरुप प्रकृति से पर्याप्त भिन्न है। प्रकृति एक है- पुरुष अनेक है। प्रकृति अचेतन है किन्तु पुरुष चेतन है। प्रकृति कारण है किन्तु पुरुष न तो कारणहै
और न कार्य है। प्रकृति स्वयं अजन्मा है किन्तु प्रसवधर्मिणी है क्योंकि सारा जड़ जगत इसी से प्रसूत है। पुरुष चेतन द्रव्य नहीं बल्कि चैतन्य इसका गुण या धर्म है। पुरुष चैतन्यस्वरूप है और चैतन्य उसका स्वभाव है। पुरुष विशुद्ध विषयी है जो कभी विषय या ज्ञेय नहीं बन सकता है वह साक्षी है, कूटस्थ नित्य है। पुरुष व्यापक, विभु है वह निगुण या निस्त्रैगुण्य है। पुरुष विधिनिषेध के ऊपर है। पुरुष को १०वी ११वीं कारिका में पुरुष का स्वभाव प्रकृति स्वरुप वाला भी है और उससे भिन्न भी है। जैसा कि सांख्य कारिका में कहा गया है
'हेतुमद नित्यमव्यापि, सकियमनेकमाश्रितं, लिङ्गम । साडवयं परतन्त्रम् व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ।।१०।।