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किन्तु ये धर्म प्रत्येक पदार्थों में नहीं रहता है अतेव जो धर्म जिस पदार्थ में नहीं रहता है वह उसका वैधर्म्य होता है।
साधर्म्य समान धर्मा सभी पदार्थों को ग्रहण कर उनमें अन्य पदार्थों के वैधर्म्य से अन्य पदार्थ के भेद का अनुमानिक बोध किया जाता है। जैसे द्रव्यत्व, गुण आदि में न रहने से गुण आदि का वैधर्म्य है और सभी द्रव्यों में रहने से सब धर्मो का साधर्म्य है। अतेव द्रव्यत्व रुप साधर्म्य द्वारा सभी द्रव्यों को ग्रहण कर उनमें गुणादि का वैधर्म्य रुप होने से उसी धर्म से गुणादि रुपी भेद का अनुमान होता है ।
अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है- "द्रव्यंगुणादिभ्योभिधते द्रव्यत्वेन गुणादि वैधात" यो न यतो भिद्यः ते स न तद विधर्मा, यथा गुणादिः स्वतः अभिन्नतया न स्व विधर्मा"
द्रव्य गुण आदि से भिन्न है, क्योंकि उसमें गुणादि का वैधर्म्य द्रव्यत्व विद्यमान है जो जिससे भिन्न नहीं होता, उसमें उसका वैधर्म्य नहीं होता, जैसे 'रुप' से अभिन्न गुणादि में गुणादि का वैधर्म्य नही होता। द्रव्य में स्थित गुणादि भेद ही द्रव्य का तत्व है इससे यह प्रतीत होता है का साधर्म्य और वैधर्म्य से तत्वज्ञान होता है और उससे ही निःश्रेयस दोनों की सिद्धि हो वह धर्म है, इस लक्षण द्वारा पदार्थ धर्म का ही ग्रहण मुनि को अभीष्ट है यह बात स्पष्ट होती है।
न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन समानतंत्र कहलाते हैं क्योंकि कुछ बातों में इन में दोनों का दृष्टिकोण समान है दोनों दर्शन एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित है। एक के अभाव में दूसरे की व्याख्या नहीं की जा सकती है।
दोनों का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त कराना है। दोनों का मानना है कि समस्त दुःखों का मूल कारण 'अज्ञान' है इन दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है। दोनों दर्शन 'वस्तुवादी' दर्शन है यह वस्तुवाद अनुभव एवं तर्क पर आधारित है। इतनी समानता रहने पर भी दोनों दर्शनों में कुछ बिन्दुओं को लेकर मतभेद है। जैसा कि न्याय दर्शन