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उत्पत्ति के लिये उसके अवयवों में भी अनादि गुणों का अस्तित्व मानना होगा इससे सजातीय गुण प्रकट हाने लगेगें जो आत्मा के निरवयव होने में बाधक सिद्ध होंगे। इसप्रकार आत्मा को जन्म मानने पर एक और दोष प्रवृत्त होगा क्योंकि नवजात को किसी सुन्दर वस्तु के देखने पर हर्ष और किसी भयानक वस्तु के देखने पर भय उत्पन्न न हो सकेगा। इन्हीं सब बातों को दृष्टि में रखकर न्यायदर्शन में आत्मा को नित्य माना गया है। अपवर्ग – अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह न्याय का भी चरम उद्देश्य 'अपवर्ग' को ही माना गया है। 'अपवर्ग' दुःख की निश्चित और शाश्वत निवृत्ति है। मोक्ष की अनुभूति तत्वज्ञान अर्थात वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। यहाँ न्याय का दृष्टिकोण यथार्थवादी परिलक्षित होता है।
गौतम मुनि ने निःश्रेयस- निरतिशय श्रेयस, अर्थात अपवर्ग या मोक्ष के न्याय शास्त्र का मुख्य प्रयोजन माना है। जैसा कि न्याय दर्शन के प्रथम सूत्र- 'प्रमाण प्रमेय संशय...तत्त्वज्ञानन्निःश्रेयसाधिगम' से स्पष्ट होता है कि 'आत्मतत्व में साक्षा से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। गौतम मुनि ने आत्मतत्व ज्ञान से मोक्ष होने का क्रम इस प्रकार बताया है- आत्मतत्व के साक्षात्कार से आत्मविषयक मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है
और इसके बाद मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग द्वेष-मोहरूप दोषों की निवृत्ति होती है।और दोषों की निवृत्ति होने के बाद धर्म-अधर्म रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति होती है और प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म की निवृत्ति होती है और पुनर्जन्म की निवृत्ति से समस्त दुःखों की आत्यान्तिक निवृत्ति होती है यह निवृत्ति ही निःश्रेयस, अपवर्ग या मोक्षोदि के नाम से जानी जाती है। इसको सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- 'दुःख जन्म प्रवृत्ति दोष मिथ्या ज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरा भावापवर्गः तदत्पन्त विमोक्षोऽपवर्गः।