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न्याय मुक्तावली में विश्वनाथ पञ्चानन ने मंगलाचरण से ही ग्रन्थ का आरम्भ किया है
नूतन जलधर रूचये गोपवधूटी दुकूल चौराय ।
तस्मै कृष्णाय नमः संसार महीरुहस्य वीजाय । ।
आगे और स्पष्ट करते हुये लिखा गया है कि 'संसारेति', संसार एवं मही रूहो वृक्षस्तस्य बीजाय निमित्तकारणायेत्यर्थः । एतेन ईश्वरे प्रमाणमपि दर्शितं भवति । तथाहि-यथा 'घटादिकार्य कर्तृजन्यं तथा क्षित्यड़करादिकमपि।' इस प्रकार ईश्वर को विश्व का निमित्तिकारण माना गया है ।
उदयन की 'न्याय कुसुमाञ्जलि' तो ईश्वर के चरणों में प्रमाण-पुण्य का अर्पण है। इसमें ईश्वर का मुख्य रूप से विवेचन किया गया है।
न्याय दर्शन अनुसार आत्मा नित्य है, उसका जन्म और मरण नहीं होता है । जब किसी नये शरीर के साथ किसी आत्मा का भोग नियामक विजातीय संयोगात्मक सम्बन्ध उन्पन्न होता है तब शरीर में उस आत्मा के सम्बन्ध की उत्पत्ति को ही उस शरीर में उस आत्मा की उत्पत्ति कहा जाता है, एवं जब किसी शरीर के साथ किसी आत्मा के सम्बन्ध का नाश होता है तब उस सम्बन्ध नाश की स्थिति को आत्मा कामरण कहा जाता है। इस प्रकार आत्मा का स्वरूपतः जन्म और नाश नहीं होता है केवल उसमें अज्ञानता के कारण उपचार मात्र किया जाता है। आत्मा को अजन्मा, अविनाशी, नित्य न्याय दर्शन इसलिये मानता है कि यदि आत्मा को नित्य न मानकर 'जन्य' मान लेगा तो यह एक अन्य द्रव्य हो जायेगा जिससे इसे परम महान नहीं कहा जा सकता है और इसकी व्यापकता भंग हो जायेगी और आत्मा परलागू होने वाली सम्पूर्ण बातें अनुपपन्न होगी जिनके लिये आत्मा को व्यापक माना जाता है । और दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा को एक द्रव्य के रूप में मानेंगे तब उसमें ज्ञानादि गुणों की
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* न्या० सि० मु० - श्री विश्वनाथ भट्टाचार्यविरचिटा - व्याख्याकार श्री गजानन शास्त्री मुसलगांवकरपृ० ३ (चौ० सुरभा० प्रका० वाराणसी)
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