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भूधरजनयतका -- --
घनाक्षरोछंद आगमभासहोय, सेवासरमजतेरी, सङ्गतसदीवमिलो , साधरमीजनको । सन्तनकेगुणको व, खान यह बानपर, मेटोटेवदेवपर, भौगुणकयनको । समहीसोंऐनसुख; दैन सुखबैनभाखो' भावना चकालराखो, आतमीकथनकी । जोल कर्मकाटखोल' मोक्षकेकाटतौल.' यहोवातहजो प्रभु, पूजोआसमनको ॥ ६२॥ .
शब्दार्थ टौका ( सरवज्ञ ) सभ वस्तुका जानने वाला अर्थात् जिनदेव ( साधरमो ) ध रमामा पुरुष (टेव ) सुभाव ( ऐन) इबह (बैन ) वचन (भाखो ) बोलो (भावना ) इच्छा (नकाल ) तीनकाल (भातमीक ) अपनो पामा (कपाट ) किवाड़ ( पूनो) पूरो।
सरलाई टीका . शास्त्रका अभ्यास होय और सर्वत्र देवको पूजा करू' और सदीव साधर मो जनोंको सङ्गत मिलयो और सन्तोंके गुणों के कान की बान परयो और परोये अवगुण के कथन का सुभाव भोदेव दूर करो और सब ही सौं अति सुखदेनेवाले बचन बोलो और तीनोंकान पातमीक धन की भावना राखो और भोप्रभु जबतक कर्म काटकर मोक्ष किवार खोलं, तबलग यही वात हली कि मेरे मनकी आशा पूरण करो।