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जो अद्भुत शक्तिया निवास करती है, प्राज के परमाणुयुग मे उन्हे दोहराने की आवश्यकता नही है । वे सूर्य के प्रकाश के तुल्य सर्वथा स्पष्ट है । कर्मपरमाणुओ की इन विभिन्न शक्तियो आधार पर ही जीवन मे अनेकविध उतार-चढाव दिखाई देते है |
जीवन मे जो सुख दुख दृष्टिगोचर होते है, उन सबका कारण कर्म है । कर्म ही जीवन मे सुख दुख लाता है । हमारा व्यवहार इस सत्य का साक्षी है । कोई आदमी अपनी आखे बन्द कर के यदि कूए की ओर चलता है, और उस मे गिर जाता है तो कुए में गिरने का कारण वह स्वय ही है । उसे किसी ईश्वर आदि ने कुए मे डाल दिया है, ऐसा नही कहा जा सकता । पर्वत से सर टकराने वाला मनुष्य सर फडवा लेता है | दीवाल से छलाग लगाने वाला व्यक्ति जीवन से हाथ धो बैठता है । ऐसे अन्य भी अनेको घटना स्थल हमारे सामने है, जिन्हे देख कर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कर्मफल का प्रदाता कर्म स्वय ही है, ईश्वर आदि का उस के साथ कोई सम्बन्ध नही है । "कर्म फल प्रदाता ईश्वर नही है" इस सम्बन्ध मे विस्तार के साथ स्वतत्ररूपसे इसी पुस्तक के "ईश्वर - वाद" नामक प्रकरण मे प्रकाश डाला जायगा ।
कर्म करने मे जीव स्वतंत्र है
हमारे पडोसी वैदिक दर्शन मे कहा गया है कि ससार मे मनुष्य जो भी कुछ करता है, उस का मूल प्ररेक ईश्वर है, ईश्वर के सकेत के विना पत्ता भी कम्पित नही हो सकता, किन्तु भगवान महावीर का ऐसा विश्वास नही है । भगवान महावीर का विश्वास है कि कर्म करने मे जीव स्वतंत्र है ।