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कोऊ न काऊ सुख-दुख को दाता ।
निजकृत कर्म भोगी सब भराता। इस प्रकार ससार के सभी मनीपी व्यक्तियो ने कर्म को ही सुख दुख का दाता स्वीकार किया है । वस्तुस्थिति भी यही है।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वय हैभगवान महावीर के युग मे मनुष्य ईश्वर के हाथ की कठपुतली बन कर चल रहा था। जनमानस मे यह भ्रान्त धारणा पनप रही थी कि जगत के समस्त स्पन्दन ईश्वर की प्रेरणा से होते है । अच्छा बुरा सब ईश्वर कराता है। ईश्वर ही मनुष्य के भाग्य का स्वामी है, निर्माता है । मनुष्य तो पामर प्राणी है, वह बेचारा क्या कर सकता है ? किन्तु भगवान महावीर ने इस विचारधारा का विरोध किया, उन्होने मनुष्य की अन्तरात्मा को झकझोरते हुए अपने महास्वर मे कहा-मनुष्य | तू स्वय ईश्वर है, तेरे ही अन्दर परमात्म-तत्त्व अगडाई ले रहा है, तू स्वय अपने जीवन-प्रसाद के रचयिता है, तेरी सृष्टि का निर्माण स्वय तेरे हाथो मे रहा हुआ है। तू स्वय अपने भाग्य का निर्माता है। स्वय ही तू सुख-दुख की सृष्टि करता है । ईश्वर का उस के साथ कोई सम्बन्ध नही है। तू जिस तरह का कर्म करता है, उसी तरह का तुझे फल भोगना पडता है। किसान अपने खेत मे जैसा बीज वोता है, उसे उस का वैसा ही फल मिलता है। गेहू वो कर गेहू, और बाजरो वो कर बाजरो मिलती है। ठीक इसी प्रकार मानव को शुभ कर्म से २ष्ट-योग और अनिष्ट-वियोग आदि की प्राप्ति होतो है, तथा प्रशुभ कर्म करने से अनिष्ट-सयोग और इप्ट-वियोग