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रूपो मे दृष्टिगोचर होते है । आखिर इस विभिन्नता का कारण क्या है ? जीवनगत ये अन्तर क्यो देखे जाते हैं ? इस विचित्रता मूल मे कौन सो शक्ति काम कर रही है ? भगवान महावीर के विश्वासानुसार इस महाशक्ति का नाम कर्म है । यह कर्म ही संसार मे जीवन को नाना रूपो मे परिवर्तित करता रहता है ।
जगत मे अनेको प्रकार की विषमताए पाई जाती है । श्रार्थिक और सामाजिक विषमताओ के अलावा प्राकृतिक विषमताएं भी है। उन सब का कारण मनुष्य नही हो सकता । जब सब मे एक सा आत्मा निवास करता है, तब मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट और वृक्षलता आदि के विभिन्न शरीरो और उन के सुख-दुख आदि में अन्तर क्यो है ? इस का भी तो कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कारण बिना कोई कार्य नही हो सकता । भगवान महावीर के मत मे इन समस्त विषमताओ का कारण कर्म है | भगवान महावीर ससार की इन सभी विभिन्नताओ के मूल मे कर्म को ही प्रधान कारण स्वीकार करते है ।
भगवान महावीर के युग मे जीवनगत विभिन्न परिस्थितियो का उत्तरदायित्व ईश्वर पर डाला जाता था । "करे करावे श्रापो आप, मानुष के कुछ नाही हाथ" यही स्वर उस युग मे गूज रहा था किन्तु भगवान महावीर ने इस मान्यता को प्रयथार्थ बतलाया | भगवान का अटल विश्वास था कि जीवन मे अच्छीबुरी जो अनेकविध अवस्थाए दृष्टिगोचर होती है, इन का कारण ईश्वर नही है, ईश्वर किसी को सुख या दुख नही देता । जीवन मे जो दुखो के भूचाल आते है, उन मे न ईश्वर का हाथ है और न अन्य किसी दैविक शक्ति का हस्तक्षेप है । मनुप्य के सुख-दुख का कारण कर्म है । और कर्म ही मनुष्य को सुख