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से विचार करने पर इस का प्रधान कारण परिग्रह हो मिलेगा । परिग्रह को ले कर ही आज पूजीपति और श्रमजीवी इन दोनों मे सघर्ष चल रहा है । और तो क्या, स्वय पूजीपतियो मे और श्रमजीवियो मे भी परिग्रह ने संघर्ष को जन्म दे दिया है । पूजीपति आपस मे लड़ते हैं और श्रमजीवी आपस मे, यह सब परिग्रह का ही दुष्परिणाम है । परिग्रह के कारण ही भाई भाई का रक्त पीने को तैयार खड़ा है। मां पुत्र का गला घोटने की वात सोच रही है, बहिन भाई को, और भाई बहिन को सनाप्त करने की ठान रहा है । अधिक क्या, संसार के सभी अनर्थो का मूल परिग्रह ही है। जब तक मनुष्य के जीवन मे अमर्यादित लोभ, लालच, तृष्णा, ममता या गृद्धि मौजूद रहेगी तब तक उसे शान्ति के दर्शन नही हो सकते। अत स्वपर की शान्ति के लिए मनुष्य को अमर्यादित स्वार्थवृत्ति और सग्रह-बुद्धि पर नियत्रण रखना चाहिए । इसी नियत्रण के लिए महामहिम भगवान महावीर ने अपरिग्रहवाद का सामयिक आविष्कार किया था।
परिग्रह जीवन का सर्वतोमुखी पतन कर डालता है, इससे मनुष्य मे अनैतिकता और अन्यायशीलता का विकास होता है। इस के द्वारा समाज अथवा राष्ट्र को आध्यात्मिक, आर्थिक और व्यापारिक क्षति उठानी पड़ती है। परिग्रह-प्रिय व्यक्ति अर्थ को अपना ध्येय बना लेता है, उस के सगह के लिए उस से जो भी भला बुरा हो सके, वह करने को तैयार रहता है। परिग्रही हिसापूर्ण व्यापारो से ज़रा सकोच नही करता है। वृक्षो को काट-काट कर कोयला वनाना, ठेका लेकर जंगलो को उजाडना, हाथीदान्त के लिए हाथियो को मारना,