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लए अपरिग्रह-प्रणव
परिग्रह किया है। यह
स
(१७६) रखकर भगवान महावीर ने उस के लिए अपरिग्रह-अणुव्रत- का
आविष्कार किया है । यह सत्य है कि गृहस्थ, धन, धान्य आदि परिग्रह का सर्वथा परित्याग नही कर सकता तथापि वह इस अणुनत द्वारा लोभ-वृत्ति पर अकुश अवश्य रख सकता है। __ लोभ को पापो का मूल और आध्यात्मिकता का नाशक कहा गया है । "योगसार" के मतानुसार लोभ अनिष्ट प्रवृत्तियो का मूलस्थान है, लोभ ही आपत्तियो का केन्द्रस्थान है-लोभो व्यसनमन्दिरम् । लोभ से ही धार्मिक प्रवृत्तियो का नाश हुआ करता है-लोभाद्धर्मो विनश्यति (महाभारत शान्तिपर्व)हितोपदेश मे लिखा है कि समय के अनुसार सभी वस्तुए जीर्ण-शीर्ण और नष्ट हो जाया करती हैं, परन्तु धनसग्रह करने की आशा और जीवित रहने की इच्छा ज्यो-ज्यो समय जाता है त्यो-त्यो नित्य नवीन और तरुण होती रहती है। इस प्रकार तृष्णालालसा कभी वृद्ध नही हुआ करती है। योग शास्त्र मे आचार्य हेमचन्द्र कहते है
"आशैव जोर्णमदिरा" अर्थात्-जैसे मदिरा, शराव, ज्यो-ज्यो पुराना पडता है, त्यो-त्यो अधिकाधिक नशा लाने वाला बनता है, वैसे ही यह आशा-तृष्णा भी ज्यो-ज्यो चित्त मे अधिकाधिक घर करती चली जाती है, वैसे ही अधिकाधिक घवराहट से परिपूर्ण अशान्ति पैदा करती रहती है । इस लोभ और लालच के विपादान्त परिणाम के सम्बन्ध मे जितना भी कुछ कहा जाए उतना ही थोडा है। अत. आनन्दाभिलाशी गृहस्थ को इस लोभवृत्ति पर
धनाशा जीविताशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यति ।