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(१७५) जो, कुछ भी उपकरण अपने पास रखता है, वह सब सयम-का सुचारु रूप से पालन करने के निमित्त ही रखता है, उस मे उस का जरा भी ममत्व नही होता। ममत्वबुद्धि से रखा गया उपकरण जैनसाधु की दृष्टि मे उपकरण न रह कर अधिकरण हो जाता है, अनर्थ का मूल बन जाता है। अत. जैनसाधु वस्तु छोटी हो या वडी, चेतन हो या जड, अपनी हो या पराई, किसी मे भी आसक्ति नही रखता। सर्वथा अनासक्त भाव से रहता है। जैनसाधु जहा धन, धान्य आदि वाह्य परिग्रह का परित्याग कर देता है, वहा वह हास्य,रति आदि जो १४ अभ्यन्तर परिग्रह बतलाए हैं,उन का परित्याग करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। साधक की प्रगति मे परिग्रह सब से वडा प्रतिवन्धक है, साधु अपनी सयम-साधना मे उसे तीक्ष्णकण्टक समझता है। प्रत. जहा भी इसे यह दृष्टिगोचर होता है, वही से इस को यह निकालने में जुट जाता है। परिगह की गाठ को तोड़ देने के कारण ही जैनसाधु निर्ग्रन्थ कहलाता है।
साधु की अपेक्षा गृहस्थ का अपरिग्रहवत अणु होता है। गृहस्थ से धन. धान्य आदि का पूर्ण त्याग नही हो सकता। गृहस्थ ससार मे रहता है, अत उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तरदायित्व है। उसे अपने विरोधी प्रतिद्वन्द्वी लोगो से संघर्ष करना पडता है, जीवन-यात्रा के लिए कुछ न कुछ पापमय मार्ग अपनाना होता है, परिग्रह का जाल बुनना होता है, न्यायमार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कही न कही किसी से टकराना पड़ जाता है। अत गृहस्थ अपरिग्रहवत की पूर्णतया अाराधना करने मे सफल नहीं हो सकता। गृहस्थ की इस विवशता को ही ध्यान में