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(१७२) ७ क्रोध-किसी अनुचित कर्म, अपकार आदि से उन्पन्न दूसरे का अपकार करने का तीव्र मनोविकार ।
८. मान-घमण्ड, अहकार, अभिमान । ९ माया-छल, कपट, सरलता का अभाव। १० लोभ-लालच, तृष्णा या गृद्धि ।
११. स्त्रीवेद-जिस के उदय से स्त्री को पुरुषरमण की इच्छा उत्पन्न होती है।
१२. पुरुषवेद-जिस के उदय से पुरुष को स्त्रीरमण की इच्छा उत्पन्न होती है।
१३. नपुसकवेद-जिस के उदय से नपुसक को स्त्री और पुरुष दोनो की इच्छा होती है।
१४ मिथ्यात्व-मोहवश अयथार्थ मे यथार्थ बुद्धि और यथार्थ मे अयथार्थ बुद्धि का होना।
एक आचार्य परिग्रह की व्याख्या करते हुए कहते है"परि समन्तात् मोहदुद्धया गृह्यते स परिग्रह."
अर्थात्-मोहबुद्धि के द्वारा जिसे चारो ओर से ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है । परिग्रह के तीन भेद होते है-इच्छा, सग्रह और मूर्छ । अनधिकृत साधन सामग्री को पाने की इच्छा करने का नाम इच्छारूप परिग्रह है । वर्तमान मे मिलती हुई वस्तु को ग्रहण कर लेना सग्रहस्प परिग्रह कहा गया है और सगृहीत वस्तु पर ममत्व-भाव और आसक्तिभाव मूरुिप परिग्रह कहलाता है।
अपरिग्रह का अर्थपरिपद के प्रभाव को अपरियह कहते हैं। परिगह गन्द के मम्बन्ध में पर की गलियों में लिया जाना है। परिग्रह