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(१७१) (३) खातोच्छ्रित- भूमिगृह के ऊपर बनाया हुआ भवन ।
३ हिरण्य-सिल या आभूषण के रूप में परिवर्तित चादी अर्थात् घडी हुई या बिना घडी हुई चादी।
४ सुवर्ण-घडा हुआ या विना घडा हुआ सोना। हीरा, माणिक, मोती आदि जवाहरात का भी इसी मे ग्रहण हो जाता है।
५. धन-गुड़, शक्कर, खाण्ड आदि । ६' धान्य-चावल; मूग, गेहूं, चने, मोठ, बाजरा आदि । ७. द्विपद-दास, दासी, मोर, हस आदि । ८ चतुष्पद-हाथी, घोड़े, गाय, भैस आदि ।
९ कुप्य-ताम्बा, पीतल आदि धातु या सोने, बैठने, खाने, पीने आदि के काम मे आने वाली धातु की बनी हुई वस्तुए तथा उक्त कामो मे आने वाली बिना धातु की दूसरी वस्तुए।
परिग्रह के बाह्य और अभ्यन्तर ये दो रूप होते है। उक्त नवविध परिग्रह बाह्यपरिग्रह के अन्तर्गत होता है। अभ्यन्तर परिग्रह जो कि वास्तव मे परिग्रहस्वरूप है, १४ प्रकार का बतलाया गया है। वह इस प्रकार है
१ हास्य-जिस के उदय से जीव मे हसी आवे । २ रति-जिस के उदय से सासारिक पदार्थों में रुचि हो।
३ अरति-जिस के उदय से धार्मिक कार्यो मे जीव की अरुचि हो।
४ भय-विपद् या अनिष्ट की सभावना से उत्पन्न दु खजनक भाव।
५ शोक-जिस के उदय से शोक, चिन्ता, रुदन आदि हो । ६ जुगुप्सा-जिस के उदय से पदार्थो पर घृणा उत्पन्न हो।