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(१६५) भाषा को यही तक-नही वदला गया । बल्कि, आगे चल कर इस को और भी अधिक विकृत कर दिया गया । मनुस्मृति मे लिखा है- - -
वेदनिदको नास्तिक 'अर्थात्-वेद को न मानने वाला नास्तिक होता है।
जैनदर्शन वेदो को अपौरुषेय नही मानता है, वेदो मे यज्ञो के नाम पर की जाने वाली पशुहिसा का जो विधान है, मूर्तिपूजा द्वारा जड मे चेतनता का जो आरोप है, तथा श्राद्ध आदि जो अन्य अनेकविध असगत विश्वास पाए जाते है, उन्हे जनदर्शन स्वीकार नही करता है, इस लिए मनुस्मृतिकार की दृष्टि मे जैनदर्शन नास्तिकदर्शन कहलाता है। किन्तु मनुस्मृति के उक्त कथन मे कोई सत्यता नही है। क्योकि अपने से विरुद्ध किसी दर्शन को मान्यता को न मानने से ही किसी को नास्तिक नही कहा जा सकता है। यदि ऐसा ही है, फिर तो सभी दर्शन नास्तिक बन जाएगे। कोई भी दर्शन आस्तिक नही रहेगा। क्योकि सभी दर्शनो का प्राय पारस्परिक दार्शनिक विरोध तो चलता ही है । और तो और, स्वय वैदिकदार्शनिको मे दार्शनिक एकता का अभाव है। सनातनधर्मी भाई मूर्तिपूजा, ईश्वर का अवतार, श्राद्ध, हिसामय यज्ञ आदि को वेदविहित मानते हैं, किन्तु आर्यसमाजी इन का सर्वथा विरोध करते है। दोनो ही वेदानुयायी है । तथापि दोनो मे महान भिन्नता है। ऐसी दशा मे सनातनधर्मी आर्यसमाजी की दृष्टि मे नास्तिक और सनातनधर्मी की दृष्टि मे आर्यसमाजी नास्तिक होगे। पर दोनो अपने को आस्तिक मानते है । इसलिए मनुस्मृतिकार का