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(१६४) आचार्यप्रवर शकटायन और पण्डितप्रवर भट्टोजी दीक्षित दोनो वैयाकरणो ने आस्तिक-नास्तिक गन्दो की व्याख्या, व्युत्पत्ति तथा इन के अर्थ का भी निर्देश किया है। दोनो के अभिमतानुसार आस्तिक और नास्तिक शब्द की मूलप्रकृति. अस्ति और नास्ति है। अस्ति शब्द सत्ता का और नास्ति शब्द निषेध का परिचायक है । परलोक, पुण्य और पाप की सत्ता मे जिस का विश्वास है, वह आस्तिक है और इन मे जिस का विश्वास नहीं है, उसे नास्तिक कहते है । आस्तिक और नास्तिक शब्द की इस व्याकरणसम्मत परिभाषा मे कही ईश्वर का नामोनिशान नही है। इस से स्पष्ट हो जाता है कि वैदिकदर्शनसम्मत ' प्रास्तिक शब्द की "-ईश्वर को जगत का सर्वेसर्वा मानता है, वही आस्तिक होता है-" यह परिभाषा सर्वथा कपोल-कल्पित है और इस के पीछे शब्द शास्त्र का कोई बल दृष्टिगोचर नही होता है।
आस्तिक नास्तिक शब्द का ऐतिहासिक चिन्तन करने से मालूम होता है कि अस्तिक-नास्ति : शब्द पहले-पहल व्याकरणसम्मत परिभाषा के अनुसार ही व्यवहार मे लाए जाते थे, किन्तु आगे चल कर इन मे ईश्वर शब्द जोड़ दिया गया । ईश्वर शब्द भी सामान्य रूप से परमात्मा का परिचायक नही था ! वल्कि एक पारिभाषिक अर्य को ले कर उस का प्रयोग किया गया था। जो एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, जगन्नियन्ता है. उस शक्तिविशेप को ईश्वर समझा जाता था। इस तरह दोनों शब्दों की "-जो जगन्नियन्ता ईश्वर को मानता है, वह आस्तिक और जो उस से इन्कार करता है, वह नास्तिक-" यह परिभाषा निश्चित कर दी गई । आस्तिक-नास्तिक गन्दी की मूल परि