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क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष ये सब जीवन के विकार हैं । इन्ही के कारण नानारूप बनाकर यह आत्मा संसार का नाटक खेलता रहा है, इन्ही के प्रभाव से दुर्गतियो के भीषण कृप्ट भेलता आ रहा है और यही विकार संसार के दिपवृक्ष की जड़ो को सदा सीचते रहते हैं । जब तक इन विकारों का खातमा नही होता, तब तक दुखों से छुटकारा नही मिल सकता । इन की समाप्ति पर ही आत्मा के कर्म-बन्धन टूट सकते हैं और उस मे परमात्मज्योति जगमगा सकती है । विकारों की समाप्ति अन्तर्जगत को बुद्धि पर निर्भर है । अन्तर्जगत की शुद्धि के लिए आहार, विचार, आचार और व्यवहार गत सात्त्विकता की अपेक्षा हुआ करती है । अहिंसा, संयम, तप की त्रिवेणी मे गोते लगाने को जरूरत है । इन्ही साधनों द्वारा आत्मा के विकारो का परिमार्जन किया जा सकता है, इन्सान से भगवान, आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है । वायु का प्रबल वेग जैसे मेघों को दूर हटा कर सूर्य और चन्द्र को निरावरण बना देता है, ऐते ही अध्यात्मत्ताधना का प्रबल वेग आत्मा के विकारजन्य यावरण को दूर हटा कर उसे निरावरण बना डालता है । 'आत्मा को निरावरण बना लेना ही जैनदृष्टि ते ईश्वर को पा लेना होता है । निरावरण आत्मा और परमात्मा में जैनदृष्टि से कोई अन्तर नहीं है ।
ईश्वरवाद और आस्तिकता
वैदिक दर्शन का विश्वास है कि जैनदर्शन नास्तिक है, आस्तिक नही है । इस का कारण वह यह बतलाता है कि जनदर्शन ईश्वर को जगत का निर्माता नहीं मानता, भाग्य