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(१६१) तुम्हारा अपना आत्मा ही परमात्मा है । पर आज उस पर विकारो का आवरण आया हुआ है, इसलिए भगवज्ज्योति छिप गई है । तथापि निराश होने वाली कोई बात नहीं है। धर्माचरण कर के उस आवरण को दूर किया जा सकता है। धर्माचरण द्वारा तुम्हारा आत्मा धर्मात्मा और महात्मा की भूमिकायो को पार करता हुआ एक दिन परमात्मा बन सकता है। अपने आत्मा को परमात्मा बना लेना ही जैनदर्शन मे ईश्वरप्राप्ति कही जाती है।
जैनदर्शन ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग भी सुझाता है। वह कहतो हैं कि आत्मा से धर्मात्मा, धर्मात्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा बनने के लिए अपना आहार वदलो, अपना विचार बदलो, अपना प्राचार बदलो और अपना व्यवहार बदलो। सर्वप्रथम आहार को सात्त्विक बनाओ। फिर आहार की सात्त्विकता विचारो को सात्त्विक बना देगी । विचारो की सात्त्विकता आचार की उन्नति का कारण बनेगी
और आचार की उन्नति से व्यवहार समुन्नत वन जायगा। इस प्रकार चारो को शुद्धि से जीवन शुद्ध बन सकता है और जीवनगत विकारो को सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। वस्तुत आत्मा और परमात्मा मे भेद डालने वाली सब से बडी शक्ति या दीवार जीवनगत विकार ही है। विकार ही श्रात्मा के परमात्मतत्व को आच्छादित कर रहे है और उसे प्रकट होने नही देते है। राहु और केतु, जैसे सूर्य और चन्द्र को ग्रसित कर लेते हैं, उन पर छा जाते हैं, ऐसे ही विकारो ने आत्मा को ग्रस रखा है और यहो उस की समस्त शक्तियो को कुण्ठित कर रहे हैं। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, असन्तोष तथा