________________
(१५८) अपने मे ले लेता है। ऐसे ही रागद्वेष के वातावरण में बैठकर जीव को रागद्वेप के सस्कार मिलते है और वीतराग प्रभु का चिन्तन करने से आत्मा मे वीतराग भाव का संचार होता है और धीरे-धीरे आत्मा निजस्वरूप मे आकर अनन्त आनद और ज्ञान की अनन्त विभूति से मालामाल हो जाता है ।
ईश्वर का नाम इतना पवित्र और सात्त्विक होता है कि जब कोई व्यक्ति शुद्ध हृदय से उस का चिन्तन करता है, उस के गुणो मे रमण करता है, तो उस समय उस के हृदय में कोई विकार उत्पन्न नहीं होने पाता । मन सर्वथा शान्त और निर्विकार बन जाता है । हृदय में अनुपम और अपूर्व सा उल्लास नाच उठता है। ऐसी दशा यदि लगातार बनी रहे और इस दिशा में मानव अपना अभ्यास लगातार बड़ाता रहे तो एक दिन उस का अन्तरात्मा इतना एकान हो जाता है कि फिर वह कभी विषयो की ओर जाने नही पाता है और अन्त मे विकारो का सर्वथा खातमा करके वह ईश्वरस्वरूप बन जाता है। अत जीवन को ईश्वरस्वरूप मे लाने के लिए मनुष्य को ईश्वरीय गुणो का चिन्तन और मनन करते ही रहना चाहिए।
ईशस्मरण का सब से बड़ा प्रत्यक्ष लाभ यह होता है कि मनुष्य जब तक ईशस्मरण मे लगा रहता है, ईश्वर के गुण गाता रहता है, कम से कम उत्तने समय के लिए बुराईयो से बचा रहता है। १६ आने गवाने की अपेक्षा यदि दो आने भी बचा लिए जाएं तो वह अच्छा ही है। इसी तरह मन यदि सारा 'दिन पवित्र नही रहने पाता तो जितने क्षण भी वह सात्विक
औरपवित्र बना रहे, उतना ही अच्छा है, जीवन के उतने ही क्षण सफल हो जाते है। इसीलिए भक्तराज बबीर ने कहा है