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(१५७) के लिए ही करना चाहिए। जैसे दर्पण को देखकर मनुष्य अपने मुह पर लगे हुए दाग को साफ कर लेता है, ऐसे ही ईश्वर को आदर्श मानकर मनुष्य अपनी आत्मा को धो सकता है, अपनी आत्मा पर काम, क्रोध आदि विकारो के जो दाग लग रहे है, उन को जानकारी होने पर उन को दूर कर सकता है। क्योकि आत्मा और परमात्मा मे केवल विकारो का ही अन्तर है। यदि इस अन्तर को मिटा दिया जाए तो दोनो बराबर हो जाते है । उस अन्तर को तभी मिटाया जा सकता है । जब उसका बोध हो । वोध तभी हो सकता है, जब अपनी आत्मा का और ईश्वर का चिन्तन और मनन किया जाए। ईश्वर का चिन्तन-मनन करके मनुष्य उस के स्वरूप को जान लेता है, और फिर उस स्वरूप को अपने अदर प्रकट करने का यत्न करता है । पथिक को जिस पथ पर चलना होता है, सर्वप्रथम उसे उस गन्तव्य पथ को समझने की आवश्यकता होती है, मार्ग को जाने विना उसपर चलना असभव है । ऐसे ही ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उस के स्वरूप को समझना होगा, और समझने के अनन्तर उसे प्राप्त करना होगा। इस की प्राप्ति होने पर आत्मशुद्धि और आत्मशान्ति का लाभ स्वत हो हो जाता है। अत: ईश्वर का स्मरण और चिन्तन अध्यात्म जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
दुखो के उत्पादक राग और द्वेप ये दो जीवन के विकार है। इन दोनो को दूर करने के लिए रागद्वेष रहित परमात्मा का पालवन (सहारा) लेना नितान्त आवश्यक है । म्फटिक के पास जिस रग का फूल रखा जाता है, जैने वह उस ग को