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बतलाता है, यह वैदिकदर्शन की 'तरह अवतारवाद के माध्यम से ईश्वर को पशु, मनुष्य आदि के रूप में परिवर्तित करने की बात नही कहता और नाही मनुष्य को ईश्वर का गुलाम या उस के हाथ की कठपुतली बनाता है।
ईश्वर-स्मरण क्यो आवश्यक है ? . . . वैदिकदर्शन ईश्वर को जगत का निर्माता, भाग्यविधाता, कर्मफलप्रदाता.मानता है, उस का विश्वास है कि ईश्वर भक्ति, से पूजा से,पाठ से,जप से प्रसन्न होता है और ईश्वर की प्रसन्नता कल्पवृक्ष की भाति कामनाओ को पूर्ण करती है, इसलिए उस का स्मरण, जाप अवश्य करना चाहिए, किन्तु जैनदर्शन कहता. है कि ईश्वर जगत का-निर्माता नही है, भाग्यविधाता या कर्मफलप्रदाता भी नहीं है। जैनदर्शन की आस्था है कि ईश्वर: वीतराग है, उसके यहा राग द्वेप का चिन्हें भी नहीं है। अतः । उस की भक्ति करने से वह प्रसन्न नहीं होता और यदि उस की पूजा न की जाए तो इस से उस को कोई रोष भी नही होता है। हर्प और शोक से वह सर्वथा मुक्त है। इस के अलावा, मनुष्य की कामनाओ को न वह पूर्ण करता है और न वह मनुष्यजीवन मे किसी भी प्रकार की भयावह स्थिति उत्पन्न करता है। अधिक क्या, मनुष्य-जीवन मे जो सुख और दुख चलते है उत्त के साथ उस का कोई सम्बन्ध नहीं है । तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ईश्वर हमारा कुछ नफा-नुक्सान नहीं करता, तो ईश्वर का भजन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न ... के समाधान मे जैनदर्शत कहता है कि भले ही ईश्वर मनुष्य का नफा नुक्सान नहीं करता है, तथापि उस का भजन, स्मरण, . कीर्तन तो करना ही चाहिए। चतुविशतिस्तव (लोगस्स) का