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लिए पापी का नाश करना जैनदर्शन को इष्ट नही है । पापियो का नाश कर देने मे ईश्वर की कोई विशेषता भी नही है ? उस की विशेषता तो उन का सुधार करने मे है ।
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जैनदर्शन मनुष्य के उत्तार ( ऊपर उठने) की बात कहता है । यहा ईश्वर का मानव के रूप में अवतरण नही होता, ईश्वर ऊपर से नीचे नहीं आने पाता । बल्कि मानव का ईश्वर के रूप मे उत्तरण होता है, मानव नीचे से ऊपर की ओर जाता है । जैन संस्कृति मे मनुष्य से बढकर कोई प्राणी नही है । उसकी दृष्टि मे मनुष्य केवल हाड - मास का चलता-फिरता. पिंजरा नही है, प्रत्युत अनन्त शक्तियो का पुज है, देवताओ का भी देवता है, अनन्त सूर्यों का भी सूर्य है । मनुष्य मे वह शक्ति है कि जिस के प्रभाव से यह ससार की समस्त शक्तियो को नतमस्तक कर सकता है, मुक्ति के पढ़ भी उसी के द्वारा खोल सकता है । मगर आज वह शक्ति मोह-माया के घने अन्धकार से अच्छादित हो रही है । अहिंसा, सयम और तप के दिव्यालोक मे जिस दिन यह मनुष्य अपने अज्ञानाधकार को नष्ट करके निज चिदानन्दस्वरूप को उपलब्ध कर लेगा उस दिन यह अनन्तानन्त जगमगात हुई आध्यात्मिक ज्योतियो का पुज बन कर शुद्ध, बुद्ध, अजर, अमर परमात्मा बन जायगा । इस मे और परमात्मा मे कोई अन्तर नहीं रहेगा, दोनो एकरूप हो जाएगे । जैनसस्कृति मे मनुष्य की चरम शुद्ध दशा की नाम ही ईश्वर या परमात्मा है । यहो जैनदर्शन का उत्तारवाद है । यह मानव को सत्य, अहिंसा की साधना द्वारा ईश्वर बनने को आदर्श प्रेरणा प्रदान करता है । इस प्रकार जैनदर्शन का उत्तारवाद मानवजगत को ऊपर उठना सिखलाता है, इन्सान को भगवान बनने की कला
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