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(१४७) दर्शन कहता है कि कर्मफल के भुगताने मे ईश्वर का कोई हाथ नहीं है । वल्कि कर्मपरमाणु स्वय ही प्राकृतिक नियमो के अनुसार कर्ता को फलानुभव करवा डालते है। ___ जैनदर्शन की इस मान्यता का जैनेतर दर्शन के प्रसिद्ध धर्मशास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता मे भी पूरा-पूरा समर्थन मिलता है। वहा लिखा है
न कर्तृत्व न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु.। न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पाप, न चैव सुकृत विभुः । अज्ञानेनावृत ज्ञान, तेन मुह्यन्ति जन्तव ॥
-गीता अ० ५-१४, १५ अर्थात्-ईश्वर न तो इस लोक की रचना करता है, न किन्ही कर्मों का निर्माण करता है और न वह प्राणियो को उन के शुभाशुभ कर्मों का फल देता है। सभी कुछ स्वभाव से हो रहा है, प्राकृतिक नियमो के कारण ही ससार का चक्र चल रहा है । इस के अलावा, ईश्वर किसी के पाप, पुण्य का उत्तरदायित्व भी नही लेता है। वस्तुस्थिति यही है कि जीव अज्ञान से आवृत होने के कारण भूलभूलैया मे पड़े हुए है।
कर्मो का फल कैसे मिलता है ? जैनदर्शन का अटल विश्वास है कि ईश्वर कर्मों का फल नही देता है। यहा प्रश्न हो सकता है कि फिर कर्मो का फल कैसे मिलता है ? जीव को एक योनि से दूसरी योनि मे कौन ले जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे जैनदर्शन बहुत सुन्दर बात बतलाता है। वह कहता है कि अनादिकाल से जीव के