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किसी अन्धे, लूले, लगडे, अनाथ और असहाय की सहायता करते है, तो यह ईश्वर के साथ विद्रोह नही तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नही कर रहे ? क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियो पर प्रसन्न रह सकेगा ? इस के अलावा, यदि - 'दुखी और असहाय व्यक्ति की सहायता करना, ईश्वर के साथ द्रोह करना है-' ऐसा मान लिया जाए तो दया, दान आदि सात्त्विक और परोपकारपूर्ण अनुष्ठानो का कुछ महत्त्व रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, बिल्कुल नही ।
४ – ईश्वर जीवो के कृतकर्मो के अनुसार उन के शरीर आदि का निर्माण करता है । जीवो के कर्मों के अनुसार ही वह जीवो को फल देता है । अपनी इच्छानुसार वह कुछ नही कर सकता । ऐसी दशा मे यह मानना पड़ेगा कि ईश्वर परतन्त्र है । और परतन्त्रता की बेडियो मे जकडा व्यक्ति कभी ईश्वर नही कहा जा सकता । जुलाहा जैसे कपड़े बनाता है, किन्तु वह परतन्त्र है । स्वार्थ, परिवार, समाज आदि के बन्धनों मे बन्धा हुआ है । इसलिए उसे ईश्वर नही कहा जा सकता । कर्माधीन होने से ठीक ऐसी ही स्थिति ईश्वर की है । जीवो के किए हुए कर्मों से वह रत्ती भर भी इधर-उधर नही जा सकता । उसे सब कुछ कर्मों के अनुसार ही करना पड़ता है । इस से ईश्वर की परतन्त्रता स्पष्ट ही है ।
५ - किसी प्रान्त मे किसी सुयोग्य न्यायप्रिय शासक का शासन हो तो उस के प्रभाव से चारो, डाकुओ तथा आततायी लोगो का चोरी यादि दुष्टकर्म करने मे ज़रा साहस नही पड़ता और उद्दण्डता छोड कर वे प्राय सत्पथ अपना लेते है । जिस से प्रान्त मे शान्ति स्थापित हो जाती है और वहा के लोग निर्भय - ता से सानन्द यत्र-तत्र विहरण करते हैं । परन्तु यह समझ मे