________________
(१३७) जैनदर्शन की दृष्टि से कर्म परमाणु-स्वरूप है । वे ही समय आने पर प्राकृतिक नियमो के अनुसार मनुष्य को अपना फल दे डालते है। कर्म-परमाणु किस पद्धति से अपने कर्ता को फल प्रदान करते है? इस की झाकी कर्मवाद के प्रकरण मे दिखलाई जा चुकी है । जिज्ञासु उस प्रकरण को देखने का कप्ट करे।
जैनदर्शन ईश्वर को कर्मफल-प्रदाता स्वीकार नहीं करता है। ईश्वर को यदि कर्मफल-प्रदाता मान लिया जाए तो ईश्वर जीवो को फल किस प्रकार देता है ? यह विचारणीय है। वह स्वय साक्षात् तो दे ही नहीं सकता क्योकि ईश्वर को कर्मफलप्रदाता मानने वाले लोग उसे निराकार बतलाते है और यदि वह साकारावस्था मे प्रत्यक्षरूप से फल दे तो इस बात को मानने से किसे इन्कार हो सकता है ? परन्तु ऐसा देखा नही जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवो को उन के कर्मों का दण्ड दिलवाता है तो ईश्वर पर अनेको दोष आते है। जानकारी के लिए कुछ एक दोपो का वर्णन नोचे की पक्तियो मे किया जाता है -
१-ईश्वर को यदि किसी धनी के धन को चुरा या लुटा कर उस धनी के पूर्वकृत कर्म का फल देना अभीष्ट है, तो ईश्वर इस कार्य को स्वय तो आकर करता नही है, वह किसी चोर या डाकू द्वारा ही ऐसा करा सकता है। और जिस चोर या डाकू द्वारा ईश्वर धनी को अगुभ कर्मजन्य अशुभ फल दिलवाएगा तो चोर या डाकू ईश्वर की आज्ञा का पालक होने से निर्दोप माना जाएगा। तथापि दोपो ठहराकर पुलिस जो उसे पकड लेती है ओर दण्ड देतो है वह ईश्वर के न्याय से वाहिर की वात माननी पडेगी। यदि उसे भी ईश्वर के न्याय मे मान कर