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(१३६) चला जाता है। तथा यही आत्मा एक दिन धर्म-साधना के द्वारा स्वय ही कर्म-बन्धन से विमुक्त हो जाता है। __ जैनदर्शन का विश्वास है कि मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मो का फल देने वाली, तथा जीव को एक गति से दूसरी गति मे ले जाने वाली ईश्वर नाम की कोई शक्ति नहीं है। संसार के पदार्थो मे जो परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे स्वयं ही प्राकृतिक नियमो के अनुसार होते रहते है। वहां ईश्वर को माध्यम बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, जल को ही ले लीजिए । धूप की उष्णता पा कर जल भाप बनकर आकाश में उड़ जाता है। आकाश के शीत भाग में पहुच वह भाप छोटे-छोटे जल बिन्दुओ के रूप में परिवर्तित हो कर मेघ के रूप मे दिखलाई देती है। फिर मेघो के भारी हो जाने पर वर्पा का होना, बिजली का चमकना, गड़गड़ाहट का घोर शब्द होना आदि जितनी भी वाते देखी जाती हैं, ये अपने-आप ही सदा होती रहती है। इन का कोई सचालक नही है । ये सव घटनाए व परिवर्तन प्राकृतिक नियमो के अनुसार स्वत. ही होते रहते है । इसी प्रकार मनुष्य को उस के पूर्वकृत कर्म का फल देने वाला, एक योनि से दूसरी योनि मे ले जाने वाला, माता के गर्भ मे भ्रूण अवस्था से लेकर यौवन और वृद्धावस्थापर्यन्त शरीर की वृद्धि व उस का ह्रास करने वाला तथा जोवन को अन्य जितनी भी अवस्थाएं दृष्टिगोचर होती हैं, उन को निश्चित एवं व्यवथिस्त करने वाला ईश्वर नाम का कोई पुरुष-विशेष या शक्ति-विशेष नहीं है। ये सब कार्य कर्मजन्य प्राकतिक नियमो के अनुसार अपने आप ही मदा होते रहते हैं।