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(१२८) उत्तरदायी ईश्वर'ही होगा, अन्य कौन हो सकता है ? क्योकि ईश्वर ने मनुष्य को ऐसी प्रेरणा प्रदान करता और न मनुष्य उस प्रेरणाजन्य कार्य में प्रवृत्त होता ।
ईश्वर को ससार का हर्ता-कर्ती मान कर यदि चलते है' तो यह भी मानना होगा कि ससार मे जो कुछ हो रहा है, वह सब ईश्वर करा रहा है। धर्मी जो धर्म करता है, दान करता है, पुण्य करता है, किसी को सहायता प्रदान करता है तथा पापी पाप करता है, गाय, भैस, बकरी आदि प्राणियो की गरदनो पर छुरिया चलाता है, व्यभिचार करता है, सती-साध्वी सुशीला नारी का शील-भग करता है, अन्य जितने भी वह दुष्कर्म करता है उन सब की जबाबदारी ईश्वर पर आ जाती है। जब जीवनगत पुण्य पाप का कर्ता ईश्वर मान लिया जायगा तो यह भी मानना पडेगा कि पुण्य-पाप का फल ईश्वर को ही मिलना चाहिए, मनुष्य को नही। पर व्यवहार इस से सर्वथा विपरीत है। ससार मे मनुष्य ही सुख-दुःख का उपभोग करता देखा जाता है। इस व्यवहार से यह भली भाति प्रमाणित हो जाता है कि मनुष्य जो कुछ करता है ईश्वर का उस से कोई सम्बन्ध नही है, उस मे उसका कोई हस्तक्षेप नही है। ईश्वर की प्रेरणा से कुछ नही होता, जो कुछ होता है वह मनुष्य स्वय अपनी इच्छा से करता है।
• जैसे जीवनगत पाप के साथ ईश्वर का कोई सम्बन्ध नही । है ऐसे ही जीवनगत पुण्य के साथ भी ईश्वर का कोई सम्बन्ध नही है। ईश्वर मनुष्य को न गिराता है और न उठाता है। मनुष्य के काम, क्रोध आदि विकार उसे गिराते हैं और अहिंसा, सयम, तप का आचरण मनुष्य को ऊचा उठाता है। एक बार