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नही करते है, जो कुछ होता है वह सब ईश्वर करता है । हम सब तो उस के हाथ के खिलौने हैं । एक दिन दुर्योधन ने वासुदेव श्री कृष्ण से भी यही कहा था
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जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म, न च मे निवृत्तिः ।
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केनापि देवेन हृदि स्थितेन,
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥
अर्थात् - हे केशव । धर्म-कर्म के सम्बन्ध मे मैं खूब जानता हू, पर उस पर चलना मेरे लिए मुश्किल है और अधर्म के मार्ग से भी मैं परिचित हू, पर उस से हट नही सकता । क्योकि मेरे जीवन की बागडोर मेरे हाथ मे नही है । मैं तो ईश्वर के हाथ की कठपुतली हू । वह जैसे मुझे नचाता है वैसा ही नाच नाचता रहता हू |
ईश्वर को कर्ता या प्रेरक मान लेने पर पापी रहेगा और न कोई धर्मी रहेगा ? धर्मी जो कुछ कर रहे हैं, उस का मूल प्रेरक ईश्वर है, उसी के सकेतानुसार ससार का घटीयत्र चल रहा है, इसलिए पाप और धर्म का उत्तरदायित्व भी ईश्वर पर या गिरता है । इस तथ्य को एक उदाहरण से समझिए । कल्पना करो कि एक व्यक्ति है, वह अपने पुत्र को श्राज्ञा देता है। वह कहता है कि पुत्र ! वह देखो, सामने एक लड़का खड़ा है, जानो, उस के मुख पर एक तमाचा मार दो। पिता की आज्ञा मिलते ही आज्ञाकारी
पुत्र भट दौड़ा और उस ने उस लडके के तमाना दे मारा, वापिस आकर अपने
दुनिया मे न कोई क्योकि पापी और
मुख पर ज़ोर से एक पिता से बोला- पिता