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उक्त सिद्धान्त के प्रकाश मे यह मानना होगा कि ईश्वर ने जगत का जो निर्माण किया है तो उस मे उस का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए । यदि यह कहा जाए कि विना उद्देश्य के ही ईश्वर ने जगत को बना डाला, तो यह बात भी बुद्धि-सगत प्रतीत नही होती। क्योकि जब मूर्ख - शिरोमणि व्यक्ति भी विना उद्देश्य के कोई प्रवृत्ति नहीं करने पाता तो सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी ईश्वर इतनी बड़ी भूल कैसे कर सकता है ?
जगत ईश्वर का मनोविनोद नही
ईश्वर को जगत का निर्माता मानने वाले लोग कहते हैं कि + ईश्वर अकेला था, इस से वह उदासीन या अतृप्त था । जिस प्रकार मकान मे कोई मनुष्य अकेला रहता है, तब उसका दिल नही लगता, वह दूसरे साथी की इच्छा करता है, उसी प्रकार ईश्वर के हृदय मे ऐसी इच्छा हुई कि कोई दूसरा होना चाहिए दूसरा न होने के कारण ईश्वर को शान्ति नही मिल रही थी । इसलिए उस ईश्वर ने सकल्प किया
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एकोऽहम्, बहु स्याम् | अर्थात् - मैं अकेला हू, बहुत हो जाए । ईश्वर के इतना कहने मात्र से इतना बड़ा विशाल जगत वन गया । कितनो विचित्र मान्यता है यह ? एक ओर कहना कि ईश्वर निराकार है, उस के कोई इच्छा नही है, दूसरी ओर यह कहना कि दिल लगाने के लिए ईश्वर को यह जगत बनाना पडा । खूब रही, ईश्वर भी एक अच्छा खाता T स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी नैव रमते स द्वितीयमैच्छत् ।
– वृहदारण्यक उप