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(१०५) मृतक शरीर मे भी मौजूद है। फिर उसका मरण या स्वर्गवास हो गया, वह कैसे कहा जा सकता है ? पर व्यवहार तो ऐसा ही होता है । इसलिए यही मानना उपयुक्त एव शास्त्रीय है कि जीव सर्वव्यापक नही है बल्कि शरीर-परिमाण वाला है।
प्रकृति का सिद्धान्त है कि जिस पदार्थ का गुण जहा देखा जाता है, वह वही रहता है, अन्यत्र नहीं। घट को ही ले लीजिए । घुट के रूप, गन्ध आदि गुण जहा पाए जाते है, वही उसकी अवस्थिति देखी जाती है, सर्वत्र नही। ऐसे ही जीव का चैतन्यं गुण शरीर मे हो मिलता है, अन्यत्र नही । इस लिए जीव को शरीर-व्यापक ही मानना पडेगा । यदि कुछ क्षणो के लिए जीव को सर्व-व्यापक मान लिया जाए तो उस का भवान्तर से सक्रमण कस्ना भो सर्वथा असभव हो जायगा । मनुष्य गतिसे नरकाति की प्राप्ति, नरकगति से तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगति से देव-गति को उपलब्धि सर्वया असभव प्रमाणित होगी, क्योकि सर्व-व्यापक पदाथ का इधर-उधर यातायात हो ही मही सकता। इधर-उधर होने की व्यवस्था तव हो सकती है, *यदि इधर उधर का प्रदेश उस पदार्थ से खाली हो । पदार्थ को सर्वव्यापकता मे कोई प्रदेश खाली रहने नही पाता है। अत. जीव को सर्वव्यापक न मान कर शरीर-परिमाण वाला ही मानना चाहिए। ऐसा मानने पर ही उक्त सभो वाते समाहित हो सकती हैं।
कहा जा चुका है कि कर्मवद्ध जीव हो ससार मे परिभ्रमण किया करता है। जब जोव कर्मो के फन्दे से निकल जाता है, अहिंसा, सयम, तप की त्रिवेणी मे गोते लगाकर कर्मो का . आत्यन्तिक नाश कर देता है, तब यह ईश्वर पद को प्राप्त