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बना विनता है। द अनन्त
(१००) तप के द्वारा कर्मों को क्षय करके निप्कर्मता प्राप्त करनी ही पडती है । निष्कर्मता के अनन्तर प्राप्त होने वाला परमात्मा स्वरूप कभी अनादि नही कहा जा सकता है। क्योकि पहले वह अप्राप्त था, अनुत्पन्न था, अब उसको प्राप्ति या उत्पत्ति हुई है । अत. वह सादि है। यह सत्य है कि प्रवाह की दृष्टि से ईश्वरस्वरूप अनादि है, क्योकि अनादि काल से जीव इसे प्राप्त करते चले आ रहे हैं, किन्तु एक व्यक्ति की अपेक्षा से ईश्वरस्वरूप को अनादि वह्ना विल्कुल असगत है। "जैनदर्शन मोक्ष को सादि-अनन्त मानता है। उसके विश्वासानुसार चार प्रकार के पदार्थ होते है-१. अनादि.अनन्त, २. अनादि सान्त ३. सादि अनन्त और ४ सादि सान्त । जिसका. न-आदि हो और न अन्त हो उसे अनादि अनन्त कहते हैं । जैसे-जीव । जीव का जीवत्व अनादि-अनन्त है, इसका न आदि है, और न अन्त है। जिसका आदि न हो -किन्तु अन्त हो, उसे अनादि-सान्त कहा जाता है । जैसे आत्मा और कर्म इन दोनो, का सयोग अनादि-सान्त है। क्योकि कर्मप्रवाह की दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कभी आरम्भं नही हुआ है, पर अहिंसा, सयम और तप से इस सम्बन्ध का अन्त अवश्य लाया जा सकता है । जिस का आदि हो, पर अन्त न हो, वह सादि-अनन्त कहलाता है । जैसे मोक्ष । कर्मों के प्रात्यन्तिक क्षय से मोक्ष का आरम्भ होता है, किन्तु सर्वथा निष्कर्म आत्मा पुन. कर्मवन्धन मे नही आने पाती, मोक्ष का अन्त नहीं होता। इसलिए मोक्ष सादि-अनन्त है। और जिस का आदि भी हो और अन्त भी हो, उसे सादिसान्त कहा जाता हैं। जैसे सयोग । घडे और कपडे मे होने वाले सयोगकी उत्पत्ति