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वह कहता है कि ससारी जीव अनादिकाल से कर्मों के प्रवाह में प्रवाहित होता हुया चला आ रहा है। इसप्रकार अनादिकालीन कर्म सन्तति के सम्बद्ध रहने के कारण जीव को सर्वथा अमूर्त नही कहा जा सकता । अनादिकाल से कर्मों द्वारा सम्बन्धित रहने के कारण जीव कथचित मूर्त भी है। ऐसी दशा मे मूर्त जोव पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ना अस्वाभाविक नही है।
प्रश्न-कर्म जड़ है, जडत्व के कारण शुभाशुभ का उसे कुछ पता नहीं है मनुष्य अपने अशुभ कर्म का फल पाना नही चाहता । ऐसो दशा मे मनुष्य कर्म का फल कैसे प्राप्त करता
उत्तर-यह सत्य है कि कर्म जड है, तथापि उसमे मदिरा और दूध की भाति वुरा या अच्छा प्रभाव डालने की शक्ति निवास करती है जो चेतन आत्मा का सम्बन्ध पाकर अपने आप ममय पर प्रकट हो जाती है और प्रात्मा पर अपना प्रभाव डाल देती है, उस प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव अशुभ कर्म के अशुभ फल की इच्छा के न होने पर भी ऐसे-ऐसे काम कर डालता है, जिसने उसे स्वत ही स्वकृत अशुभ कर्म के अनुसार अशुभ फल मिल जाता है। उसकी इच्छा हो या न हो, पर शुभाशुभ कर्म अपना फन अवश्य दे डालता है। कर्म फल के न चाहने से कर्मफन्न नहीं मिलेगा. ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है ।