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प्रस्तावना
सुभापित एव नीतिवचनो के महान् सर्जक श्री भर्तृहरि ने कहा है
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला न स्नान न विलेपन न कुसुमं नालकृता मूर्घजा , वाण्येका समलकरोति पुरुषं या सस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सतत वाग्भूषणं भूषणम् ।" मनुष्य को न कपूर, न चन्द्रहार, न स्नान, न विलेपन, न पुष्प और न सुन्दर केशविन्यास ही विभूषित कर पाता है, अपितु एकमात्र सस्कृत-वाणी ही उसके मनुष्यत्व को अलकृत करती है । और सव अलकार क्षीण एव प्रभाहीन हो जाते हैं, किन्तु वाणी का अलकार कभी भी क्षीण एव निष्प्रभ नहीं होता, वस्तुत वाणी का भूषण ही भूषण है, अलकार है।
भर्तृहरि का यह कथन सत्य की तुला पर शतप्रतिशत सही उतरता है | एक भी सदुक्ति, एक भी सुवचन जीवन को इतना महिमामय बना देती है कि मानव इतिहास के पृष्ठो पर अजर अमर हो जाता है। महान आत्माओ के, सन्त पुरुषो के हृदय के अन्तरतम से निकला हुआ एक भी सुभाषित वचन, सघन अन्धकार से आच्छिन्न मानव-हृदय मे वह आलोक भर देता है कि जीवन की धारा ही बदल जाती है। पापी से पापी, दुराचारी से दुराचारी व्यक्ति भी सहसा जो महर्षि के पद पर पहुंच पाया है, उसकी पृष्ठभूमि मे सद्गुरु का वह ऐसा कोई ज्योतिर्मय वचन ही रहा है, जिसने उनके जीवन की काया पलट करदी। महर्षि वाल्मीकि के जीवन को ऐसे ही किसी वचन ने प्रबुद्ध कर दिया था कि डाकू रत्नाकर मे से महर्षि की आत्मा जाग उठी । दस्युराज अगुलिमाल को तथागत बुद्ध की सुभाषित वाणी ने ही क्या से क्या बना दिया था। मगध का कुख्यात तस्करराज रोहिणेय तीर्थकर महावीर के एक वचन श्रवण मात्र से ही जीवन की अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर सका था, जिसका यह परिणाम आया कि उसके प्राणो के ग्राहक बने श्रेणिक जैसे सम्राटो के रत्नमुकुट उस महपि के चरणो मे झुक गये । उत्तर कालीन सन्त साहित्य मे तो इस प्रकार के अगणित उल्लेख दृग्गोचर होते ही हैं ।
मानव ऐश्वर्य की खोज भौतिक सम्पत्ति मे करता है, वह रत्न-मणिमाणिक्य की तलाश मे अपने जीवन के मूल्यवान वर्षों को गला देता है, किन्तु