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धर्म और दर्शन (ज्ञान)
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सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से, राग और द्वेष के क्षय होने से, आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
१८० जीव ज्ञान से पदार्थों के स्वरूप को जानता है।
१८१ विज्ञान से यथोचित जान कर ही धर्म के साधनो-उपकरणो का निर्णय होता है।
१८२ प्रज्ञाशील ज्ञानोपार्जन कर के विनम्र हो जाता है ।
१८३ जिसप्रकार तिमिर का नाशकरनेवाला उदीयमान सूर्य तेज से जाज्वल्यमान प्रतीत होता है, उसी प्रकार वहुश्रुत-ज्ञानी तप को प्रभा से उज्ज्वल प्रतीत होता है।
१८४ जिसप्रकार नक्षत्र परिवार से परिवृत ग्रहपति चन्द्रमा पूर्णिमा को परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार सन्त जन के परिवार से परिवृत बहुश्रुतज्ञानी समस्त कलाओ मे परिपूर्ण होता है ।
१८५ सम्यक्दृष्टि जीव का श्रुत, श्रुतज्ञान है। मिथ्यादृष्टि जीव का श्रुत, श्रुत अज्ञान है ।
१८६ ज्ञान की सम्पन्नता से जीव सभी पदार्थ-स्वरूप को जान सकता है।