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प्रथम ज्ञान होना चाहिए तत्पश्चात् दया अर्थात् आचरण ।
ज्ञान
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जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी गुम नही होती है, उसी प्रकार ज्ञानरूप धागे से युक्त आत्मा ससार मे कही भटकती नही, अर्थात् विनाश को प्राप्त नही होती ।
१७४
जिस प्रकार उत्तम जाति के अश्व पर चढा हुआ महान् पराक्रमी योद्धा दोनो ओर वजनेवाले वाद्यो के आघोष से अजेय होता है । उसी प्रकार बहुश्रुत विद्वान् भी परवादियो से ( शास्त्रार्थ मे ) पराजित नही होता ।
१७५
ज्ञानी आत्मा ही 'स्व और पर' के कल्याण में समर्थ होती है ।
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ज्ञान का प्रकाश इस जन्म मे रहता है, पर जन्म मे रहता है और कभी दोनो जन्मो मे भी रहता है ।
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जिस प्रकार सहस्रचक्षु, वज्रपाणि और नगरो का विध्वस करनेवाला शक्र देवो का स्वामी होता है उसी प्रकार बहुश्रुत ज्ञानी दैवी सम्पदा का अधिपति होता है ।
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आत्म-द्रष्टा साधक को ऊंची या नीची कैसी भी स्थिति मे न हर्षित होना चाहिए और न कुपित ही
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