________________
धर्म और दर्शन ( अपरिग्रह )
१६३
जो साघु मर्यादा विरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है, वह साधु नही, बल्कि गृहस्थ ही है ।
१६४
जो साधक मिताहारी, मित-भापी, मित-शायी और मित-परिग्रही है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।
१६५
सचय किया हुआ धन यथासमय दूसरे उड़ा लेते है किंतु सग्रही को अपने पाप कर्मों का दुष्फल भोगना ही पडता है ।
१६६ कामनाओ का अन्त करना ही दुख का अन्त करना है ।
४५
१६७
जो साधक अपनी ममत्वबुद्धि का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है |
१६८
जिस की चित्तवृत्ति से ममत्वभाव निकल चुका है, वही समार के भय स्थानो को सुन्दर रीति से देख सकता है ।
१६६ परिग्रह ही इस लोक मे महाभय का कारण होता है ।
१७०
परिग्रह तीन प्रकार का है - कर्म-परिग्रह, शरीर-परिग्रह, बाह्यभण्ड-मात्र-उपकरण - परिग्रह ।
१७१
संग्रह करना, यह अन्दर रहनेवाले लोभ की झलक है !