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तुम मेव तुम मित्त !
आत्मन् । तू ही मेरा मित्र है,
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कहना नही होगा, हजारो वर्ष की यात्रा करने पर भी ये वचन आज भी इतने ही ज्योतिर्मय हैं, जितने कि अतीत मे थे । और यह उनकी ज्योति हजारो वर्ष तक जीवन को इसी प्रकार ज्योतित करती रहेगी । यह आभा कभी धुधली होने वाली नही है ।
भगवान् महावीर का पच्चीम सोवा निर्वाण महोत्सव सन्निकट आ रहा है । इस पुण्यस्मृति मे अनेक ग्रन्थ, ग्रन्थ ही क्या ग्रन्थराज लिखे जा रहे हैं और प्रकाशन की प्रतीक्षा मे हैं । इसी श्रृङ्खला मे श्री गणेश मुनिजी शास्त्री ने भी एक श्रद्धापुष्प समर्पित किया है, उस महामहिम परमपिता के श्री चरणो मे | आगम साहित्य मे विकीर्ण भगवान महावीर के सुमापित वचनो का यह सुन्दर सकलन उपस्थित किया है उन्होने । मैं कह सकता हूँ कि मुनिजी का यह संग्रह सुन्दर एव जीवनोपयोगी है । महावीर की दिव्य वाणी के दर्शन आज भी हमे इन सुभाषित वचनो मे हो जाते है ।
वर्तमान जन-जीवन मे जो कुटाए हैं, द्वन्द्वात्मक स्थितियां हैं, नीति-अनीति के सघर्ष है, उनमे यह सुभाषित संग्रह आज भी एक प्रेरणा व ज्योति प्रदान करेगा । जन-जीवन के निर्माण मे मानसिक शान्ति एव समता की उपलब्धि मे यह संग्रह काफी सहायक सिद्ध हो सकता है ।
जैन भवन,
आगरा
२१-६-७३
श्री गणेश मुनि जी एक सरल, शान्त, भावनाशील एव युवकोचित उत्साह से युक्त श्रमण हैं । कविता, लेखन एवं प्रवचन तीनो ही धाराओ मे उनकी अच्छी गति है । उन्होने पहले भी कुछ अच्छी रचनाएँ जनसाहित्य के रूप मे प्रस्तुत की हैं, जिनका यत्र-तत्र सर्वत्र आदर हुआ है । प्रस्तुत संग्रह कृति के साथ उन्होने इस दिशा में एक और भव्य चरण आगे वढाया है । मैं मुनिश्री के मगलमय भविष्य की कामना करता हूँ कि वे इस प्रकार की साहित्य-साधना के क्षेत्र मे अधिकाधिक यशस्वी होगे एव प्रभु महावीर के शासन की गरिमा को अधिकाधिक दीप्तिमान करेंगे ।
- उपाध्याय अमर मुनि