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( ५८ ) क्रीड़ाओ, का लीलाक्षेत्र यह सव ही स्थान रहे । उनमे ही विचर कर भगवान ने कौसार जीवन विताया था।
निस्सन्देह भगवान महावीर की जन्मभूमि विदेह और जन्म नगर कुण्डग्राम अथवा कुण्डलपुर पुण्य क्षेत्र थे । उनका महती रूप और अपूर्व सौभाग्य अन्य क्षेत्रों के लिए ईया की वस्तु रहा है । कुण्डग्रास देवेन्द्र की अमरावती से बातें करता था । देवेन्द्र ने तीर्थङ्कर महाप्रभ का पतितपावन जन्म वहा होता जानकर उसकी अद्भुत शोभा और रचना रची थी। कुण्डलपुर अनन्त अनावृत नीलाकाश के सनोरम स्वरूप की वरावरी करता था-वह भी आकाश की तरह सव ही तरह की वस्तुओं से भरपूर और अमर था। आकाश की शोभा सूर्य-चन्द्र-कलावर और वुध-नक्षत्र जहा एक ओर बढाते हैं, वहाँ कुण्डग्राम को शोभनीक वनाने वाले भास्वान् तेजस्वी क्लाधर-कलाकार और बुध-विद्वान् उस नगर में मौजूद थे। आकाश वृष-नक्षत्र युक्त है, तो नगर भी धर्म से पर्ण था, आकाश तारागणों की मिलमिल ज्योति से सुहाता है, तो कुण्डग्राम भी सोने-चादी और रत्नो की मोहक प्रभा से दमदमाता या। उसके परकोट के किनारों पर अरुण-मणिया और हरितपन्ना जड़े हुये थे, जिनकी प्रभा जल से पूर्ण खाई को दिन मे
१ जिनेन्द्र की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, केवल ज्ञान भूमि श्रीर निर्वाण भूमि पूज्य स्थान है उनकी पूजा करना 'क्षेत्र पूजा' कहलाता है - 'जिण जगमणिरखवण-णागुप्पत्तिमोरुख सपत्ति । गिमिहीसु खेत पूजा, पुन्वविहाणेण कायवा ||४४२॥
-~यसुनदि श्रावकाचार प० ७८