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महान् सुभग-सुन्दर-समचतुरस-संस्थानी-वज्रवृषभनारा मंहननी हो जाते हैं। उनका अतुल वल होता है, अनन्त ज्ञान होता है-अनन्त दर्शन और अनन्त सुख मे वह मग्न रहते हैं। ज्ञानावरणाद कमों के सर्वघात से ज्ञानादि गुणों का पूर्ण विकास और प्रकाश तीर्थकर में देखने को मिलता है। वह जीवन्मुक्त सच्चिदानन्द शुद्ध आत्मा हो जाते हैं-इसलिये शरीर का कोई विकार उनमे शेष नहीं रहता। उनकी आत्मा भी शुद्ध और शरीर भी शुद्ध-दोनों अपनी २ विशुद्ध परिणति में मंलग्न रहते हैं--परका प्रभाव वहाँ निःशेष है, इसलिये विकार के लिये गु जाइश नहीं! अंतरंग में राग द्वषादि नहीं उठते-बहिरंग में भूख-प्यास, जन्म-जरा-मरण, रोग-शोक, भय-आश्चर्य, पसीना आदि कोई भी विकार नहीं उठते ! विशुद्धि के पुञ्ज उन तीर्थंकर मे शुद्ध-बुद्ध परमोत्कृष्ट आत्मा तत्व के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। इसलिये उनके निकट आधिव्याधि रहती नहीं-सौ-सौ योजन तक दुर्भिक्ष नहीं रहता
और परस्पर विरोधी जीव भी वैर भाव छोड़कर प्रेम-जान्हवी में निमग्न हो जाते हैं। मानव क्या, स्वर्ग के देवता भी उनके दर्शन करके अपने को पवित्र हुआ मानते हैं। उनकी धर्म देशना के लिये देवता सभागह अतीव सुन्दर रचते हैं, जो समवशरण कहलाता है और जिसमे जीव मात्र पहुचकर समता भाव का अनुभव करता है। नीच-ऊंच, रंक-राव, शत्रु-मित्र, स्त्री-पुरुप, गोरे-काले नर-तिय च-सभी तीर्थंकर के समवशरण में पहुंचकर साम्यभाव और सुख को पाते हैं। अहिंसा और