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(१२) तीर्थंकर-पद महाभाग्यशाली महापुरुष को ही प्राप्त होता है। सामान्य सर्वज-सर्वदर्शी केवली-माधु हो जाना सुगम है। प्रत्येक तीर्थकर के समय में वैसे सामान्य केवली असंख्यात होते हैं; किन्तु त्रिभुवन के महापुरुषों में मुकुट-मणि-रूप तीर्थकर होना सुगम नहीं है। धर्म चक्रवर्ती का यह महान् पद अनेक जन्मों के श्रम और योग साधना से नसीब होता है। मानव जन्मगत पूर्णता को प्राप्त करके ही तीर्थकर पदवी मिलती है। तीर्थकर इसीलिये ही अनुपम हैं-उनसा और कोई नहीं है। धर्म तीर्थ के संस्थापक होने के कारण वह बड़े २ श्राचार्यों द्वारा अभिवन्द्य हैं-वह लोक के सर्वोपरि सर्वतोभद्र कल्याण-कर्ता जो हैं । स्वामी समन्तभद्राचार्य उनके तीर्थ को सर्व आपदाओं फा अन्त करने वाला सर्वोदय तीर्थ घोषित करके उनकी महानता को व्यक्त करते हैं । (सर्वापदामन्तकरं निरंतं सर्वोदयं तीर्थमिदं त्वमेव) लोक कल्याण के सर्वतोभद्र सर्वोदय नेता होने के कारण ही वे सर्वोपम हैं। ___ मानव अनेक जन्मों में सत्य और अहिंसा की साधना करके ही अपने को इस योग्य वना पाता है कि सत्य और अहिंसा का प्रकाश उसके रोम-रोम से प्रगट हो। इन्द्रियों की दासता का जुआ वह उतार कर फेंक देता है, राग द्वष को वह जीत लेता और जिनेन्द्र बनता है। उसके शरीर के परमाणु भी योगनिरत पूर्णता और विशुद्धता को पाकर शुद्ध-कारवन-पुद्गल स्कंध रूप हीरे की प्रभा को भी मन्द कर देते हैं । सहस्राधिक सूर्य के प्रकाश को भी उनकी प्रभा लज्जित करती है ! वह