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निभ्रान्त नहीं है; क्योकि शास्त्रो मे यह स्पष्ट कहा गया है कि जिनेन्द्र महावीर ने समग्र आर्यखंड मे आर्य अनार्य को समानरूप मे धर्मोपदेश दिया था। और आर्यखंड में आधुनिक ज्ञात पृथ्वी का समावेश हो जाता है२ । ईश्वी सातवीं शताब्दि तक भारत का विस्तार अफगानिस्तान और ईरान के लगभग तक फैला था- इन देशों मे उस समय जैन संस्कृति का प्रचार था । चीनी यात्री हुएन साग ने अफगानिस्तान मेदि० जैनियों की वस्तियाँ देखी थीं | ३ इसका अर्थ स्पष्ट है कि इन प्रदेशों में जैनधर्म ७ वीं शताव्दि से भी पहले पहुँच चुका था । हमने अन्यत्र समग्र मध्य एशिया मिश्र आदि दशों मे जैन प्रभाव भ० पार्श्वनाथ के समय से प्रचलित स्पष्ट किया है | अवश्य ही जैन साधुओं के चारित्र नियम कठोर है और उनकी पवित्रता का पालन भी सुगम नहीं है, परन्तु जैनसंघ मे अकेले साधु ही नहीं रहते - साधुसंघ के साथ उदासीन श्रावक भी रहते हैं जो सर्वथा आरभत्यागी नहीं होते और आवश्यकता पड़ने पर मुनियों के लिये आहार की व्यवस्था भी करते है । इस पर, जैन संघ का यह खास नियम है कि वर्षाऋतु के अतिरिक्त जैनमुनि एक स्थान पर तीन दिनसे अधिक ठहर नहीं सकते । अतएव उनके लिये यह आवश्यक है कि वह घूम कर सर्वत्र धर्म का प्रचार करते रहे, खासकर मिथ्यादृष्टियों को धर्मपथमें लगाते रहें | जैनकथाप्रथों से स्पष्ट है कि मुनिजन ऐसे स्थानों पर भी पहुँचते थे, जहाँ जैनी नहीं थे । वह ग्रामवासियों को धर्म मे
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१. संइ०, भा ० २ खड१ पृ० ८८-१०६
२. भ०पा०, पृ० १५६
३. हुभाअ०, पृ० ३७ व कनिधम व जागरफी० पृ० ६७१ ४. 'भगवान् पार्श्वनाथ' प० १५४-२०१ देखो ।