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महावीर के मत में दीक्षित हुये थे । इसलिये स्वामी समन्तभद्रजी का कथन युक्तियुक्त है कि भगवान् ने धर्मामृत रूपी प्रवाह वाया था और एकान्त मिथ्यामतका खंडन कर के जिनागम का प्रचार किया था। श्री गुणभद्राचार्य जी ने इसलिये यह ठीक लिखा है कि ' भ० महावीर बर्द्धमान सदा वर्द्धमान व जयशील रहते हैं - वह भव्य जीवों को निर्मल मोक्षमार्ग में ले जाते हैंउनका धर्मतीर्थ कलिकाल में भी बड़े विस्तार से प्रचलित हुआ हैं । इसलिये यद्यपि वह तीर्थकरों में सर्व अन्तिम हैं परन्तु उन्होंने अनिम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को भी जीत लिया है ! आचार्य इसीलिये उनकी स्तुति करते हैं ।" अन्य आचार्यों ने भी इस सत्य को दुहराया है । कवि नवल यह भी अपनी काव्य वाणी में यही बतलाते हैं -६
'शनैः शनैः प्रभ करें विहार, नोना देश ग्राम पुर भार | सबको करें धर्म उपदेश, मुक्ति-पंथ भवि गहत महेश ! जिन सूरज जब किरण प्रकाश, मत अज्ञान भयो जग नाश !!'
निस्सन्देह जिनसूर्य-प्रभा से प्रभावित लोक आज तक प्रभुवीर के गुणगान गाता है । आजकल भ० महावीर के भक्तगण भारत में ही सीमित हैं. परन्तु उनके समयमें और उपरान्त भी वह सारे लोक में फैले हुये थे । कुछ लोग ऐसा खयाल करते हैं कि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार नहीं हुआ, किन्तु यह मत
४. वृहत् स्वयंभू स्तोत्र, ११२
१. 'श्री वर्दमाननिशं जिमचद् मानं, एवं तं नये स्तुतिपर्यं पथि संप्रभौवे यो स्वोपि वीर्यकरम प्रिममप्य जैषीद, काले कलौ -
पृथुतीकृत
वीर्थः ॥ १४६॥०६
६. श्री व मानपुराण, पृ० ४११ ( सूरव )
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- उत्तरपुराण पृ० ०४६