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प्रभाव सदा से दिखाता आया है। महापुरुषों के जीवन में ही लोग उनकी वाणी का विपर्यय करते नहीं चूकते, तो उनके पश्चात् तो उनकी वाणी और वचनों का मनमाना अर्थ करना कुछ भी अटपटा नहीं है। जैनसंघ में भी ऐसी ही घटना घटित हुई प्रतीत होती है । बौद्धों के 'मझिम निकाय गत सामगॉम सुत्तन्त' के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि भ० महावीर के निर्वाणोपरान्त जैनसंघ में कलह और विवाद खड़े होगये थे, जिनके कारण निर्मन्थ जनसंघ फूट कर एक से अधिक भागों मे बंट गया था | मौर्यकाल में ही बौद्धों और जैनों ने पाटलिपुत्र में अपने २ संघों की सभा बुलाकर श्रुत-संकलन किया था । वौद्धों के पिटकत्रय की पहली आवृत्ति इस सभा मे ही अवतरित हुई । और जैनों ने अपनी सभा मे वीर-वाणी का सक्लन किया । किन्तु मज्जा यह था कि इस सभा में पूर्ण श्रुतज्ञानी - श्रुतकेवली भद्रबाहुजी उपस्थित हो नहीं हुये थे । इस प्रकार यह सभा एकाङ्गी हुई थी और इसमें ही फूट का बीज अकुरित होकर पल्लवित हो
।
चला था ।
वात यह हुई कि इसी समय एक दुष्काल श्रा उपस्थित हुआ । मगध और उसके आसपास बारह वर्षों का अकाल पड़ा - उत्तर भारत में अन्न के लाले पड़ गये । स्थिति ऐसी विषम हुई कि भूखे भिखारी भेड़िये बन गये - जिसको भर पेट खाता-पीता देखते, उसी का पेट चीर कर अपनी ज्वाला शमन करते । भद्रबाहु स्वामी ने इस दुष्काल की सूचना पहले से ही संघ को दे दी थी । सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जब यह सुना तो वह ससार की स्थिति मे भयभीत हो गये । अपने पुत्र को राजभार सौंप कर वह मुनि हो गये । भद्रबाहु जी के साथ वह संयमहित दक्षिण भारत को प्रस्थान कर गये थे । वहॉ मैसूर प्रान्तार्गत कटच पर्वत पर उन्होंने समाधिमरण किया था। इसी कारण