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(३५) वीर-निर्वाणोपरान्त संघ और उसके भेद। .
"एक समयं भगवो सकसु विहरति सामगामे । तेन खो, पण समयेण निग्गन्ठो नाठपुत्तो पावायं अधुना कालकत्तो होति, तस्स कालकिरियाय भिन्न निगंठ द्वधिक जाता, भंडन जाता, कलह जाता विवादापञ्चा अण्णमण्णम् मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति ।"
-मज्झिमनिकाय भ. महावीर के निर्वाणोपरान्त जैनसंघ का नेतृत्व क्रमशः इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा स्वामी ने किया था। वे केवलज्ञानी निर्ग्रन्थ श्रमण थे। उनके पश्चात् अन्तिम केवली श्री जम्बस्वामी
और श्रतकेवलियों मे सर्व अन्तिम भद्रबाहु स्वामी हुये थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का उस समय कोई अस्तित्व नहीं था । इसीलिये दोनों सम्प्रदायों के शास्त्र भद्रबाहुजी को अन्तिम श्रुतकेवली मानने मे एकमत हैं । उनके पश्चात् दोनों सम्प्रदायों मे भिन्न भिन्न गुरु परम्परायें मानी गई मिलती हैं। अतएव यह मानना सुसंगत है कि भद्रबाहु स्वामी के समय तक अर्थात् सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल तक जैनसंघ मे विच्छेद की जड़ जमी नहीं थी। यूं तो श्वेताम्बरीय शास्त्रों से विदित होता है कि भ० महावीर के जीवन कालमे ही जामालि ने संघ में एक विद्रोह खड़ा किया था, जो असफल रहा था। एक सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर के समक्ष एक छद्मस्थ श्रमण भला कैसे टिक सकता था ? किन्तु इस घटना से, यदि यह घटित हुई हो, यह बात स्पष्ट है कि जनसंघ मे विद्रोह का विष तभी से घोला जा रहा था । लोक मे अदेखसका-दुर्भाव अपना घातक