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( ३१७ ) मुक्तात्मा दोनों एक समान हैं; परन्तु इतने पर भी यह भेद तोव्यवहार नय के विषय को तो, दृष्टि में रखना ही होगा कि देही आत्मा-संसारी जीव शुद्ध ब्रह्म रूप होते हुये भी उससे भिन्न अशुद्ध है। इसलिये उसका संसार और वह एक नहीं हो सकते। निश्चयादिनयों से वेदान्त की मान्यताओं को देखा जाये तो समन्वय हो जाता है। मायादृष्टि ही संसार लिप्त ब्रह्म को शुद्ध ब्रह्म से पृथक भेदित नहीं होने देती और यह अविद्या है जो ब्रह्म को पृथक-पथक व्यक्तिरूप मे प्रदर्शित करती है। व्यक्तिरूप ब्रह्म हो तो अपना संसार बनाता है, इसलिये ही ब्रह्ममय संसार है। वरन् चेतन और अचेतन एक कैसे होवें ? तत्वरूपेण ब्रह्म शुद्धबुद्ध अवश्य है । वेदान्त को यदि इस प्रकार समझा जाय तो भ० महावीर के सिद्धान्त से उसका समन्वय हो सकता है। ____ सांख्य दर्शन के दो रूप मिलते हैं । कपिल ऋषि ने निरीश्वरवादी सांख्य मत का प्रतिपादन किया था। वह आत्मा को 'पुरुष' कहते हैं और उसे अकत्तो एवं निर्लेप बताते हुए फल का भोक्ता बताते हैं। (अकर्तुरपि फलोपभोगो अन्नादि वत्)। पुद्गल ( Matter ) 'प्रकृति' नामसे उल्लिखित है, जिसका विकार अहंकार है। यह अहंकार ही कर्ता है-आत्मा कर्ता नहीं है । इतना ही नहीं, कपिल यह भी मानते हैं कि आत्मा में आनन्द धर्म नहीं है इसलिये आनन्द रूप मोक्ष नहीं है। यहाँ भी नय-वाद के अज्ञान ने गड़बड़ मचा दी है। निश्चयनयानुसार अथवा शुद्धरूपेण आत्मा अकर्ता और निर्लेप है; परन्तु व्यवहार नय की अपेक्षा,वह अशुद्ध है-पुद्गल से उसका अनादि सम्बन्ध है। पुरुष और प्रकृति के मेल से ही अहंकार उत्पन्न .. 'महंकारः कर्ता न पुरुषः ॥ २४ ॥६-सांख्य दर्शन
'नानन्दभि व्यकि मुक्ति निधर्मस्वात् ॥ ७४ ॥५॥ सा दर्शन
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