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ईश्वरकतृत्व और क्रियाकाण्ड प्रधान है, जैनधर्म कर्तृत्ववादी वैज्ञानिक मत है - वह एक स्वाधीन धर्म है | इसीलिये स्व० हुवोइ सा० के शब्दों में जैनधर्म ही भूमण्डल पर एक सच्चा और मनुष्यों का आदि धर्म है ।
इस सत्यधर्म का सर्व अन्तिम उपदेश भ० महावीर ने दिया था । उनके सिद्धान्तों की तुलना भारतीय दर्शनों से करके आइये पाठक यह देखिये कि उनका परस्पर सम्बन्ध क्या है ? भारतीय दर्शनों में वेदान्त की गणना प्रमुख है । वेदान्त दर्शन दृश्यरूप जगत और उसके दर्शकको एक मानता है । वह कहता है, 'ब्रह्मरूप जगत है - वह ब्रह्मसे उत्पन्न हुआ और ब्रह्ममें ही लय हो जावेगा । २ ब्रह्म से जन्म, स्थिति, नाश ( जन्माद्यस्य यत इति २२ ) होता है । ब्रह्म नित्य हैं - सर्वज्ञ है - सर्वव्यापी हैसदा तृप्त है, शुद्धबुद्ध मुक्त स्वभाव है' - विज्ञानमई- आनन्दमई है | किन्तु भ० महावीर ने बताया है कि मुक्तात्मा परमब्रह्म
कर्त्ता और जगतसे भिन्न है । नित्य और तृप्त ब्रह्मसे कोई कार्य नहीं हो सकता और हो भी, तो द्वैतरूप - शुभाशुभरूप नहीं हो सकता । आनन्दमय ब्रह्म मे यह भाव कहाँ से आवे कि वह अनेकरूप हो जावे ? दो भिन्न वस्तु होने से ही वध और मुक्ति बन सकती है - एक शुद्ध ब्रह्म में यह कैसे सम्भव हो ? एकान्त रूप यह मान्यता नयों की अनभिज्ञता का परिणाम है । जीवात्मा शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध-बुद्ध त्रह्म है । स्वभाव से ससारी और
१. " जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र है । मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण रूप नहीं है ।" - प्रो० जैकोषी
२. व्यासकृत 'वेदान्त दर्पण' देखो, पृ० ३०
३. 'मित्यस्मर्षश स्पयंगतो नित्य तृप्त शुद्ध बुद्ध मुक्तस्त्रभावा विज्ञानमानन्द झा | 'वेदान्त दर्पण