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लिए उनकी साधना के चार नियमों का उल्लेख किया है। वह भ० पार्श्वनाथ के चार नियम कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार श्वेताम्बर शास्त्रों की यह मान्यता निराधार है। इसके आधार से श्वे. अपने को प्राचीन पावसंघ से उद्ध त सिद्व नहीं कर सकते । पार्श्वसंघ के साधुगण उपरान्त स्वतः वीर सघ में सम्मिलित हो गये थे!
किन्हीं विद्वानों की यह धारणा है कि भ० महावीर अपने पितृगण के अनुकृल भ० पार्श्वनाथ के भक्त थे और गृहत्याग कर वह पार्श्वसंघ में सम्मिलित हुए थे, परंतु समूचे जैन साहित्य मे ऐसी सानी उपलब्ध नहीं है जिससे यह बात सिद्ध हो । सप ही जैन ग्रंथों में यही लिखा है कि तीर्थङ्कर स्वयबुद्ध होते हैं-वह अपना मार्ग आप बनाते हैं और समयानुकूल तीर्थ की स्थापना करते हैं । भ० महावीर ने भी यही किया था। वह किमी भी सम्प्रदायके सघमें सम्मिलित नहीं हुये थे।
लोगो की यह भी वारणा है कि भ० पार्श्वनाथ ही जैनधर्म. के संस्थापक है, परन्तु पाठक पढ़ चुके हैं कि जैनधर्म के मस्थापक इस काल में भ० ऋपभदेव थे। अतः पार्श्व चा गौर किसी तीयकर को जैनधर्म का सस्थापक कहना मिथ्या है । जैनिया की चवीस तीर्थंकरों की मान्यता प्राचीन है. जिनमें पहल भ० ऋपभदेव और सर्व अन्तिम भ० महावीर थे। १. म० महावीर चौर म० बुद, पृ० २२३-२२७ __ और भ. पाश्र्धनाय, पृ० २१८-२५॥
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