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बाड़े मे बन्द हुमा की महिमानदारी इसे सहन न
( ३०८ ) बाड़े मे वन्द हुये विलविला रहे हैं। सारथी से यह जानकर कि वे पशु आगन्तुकों की महिमानदारी में काम आयेंगे-आमिष भोजन उन्हीं का बनेगा । अरिष्टनेमि इसे सहन न कर सके-- पशुओं को उन्होंने बंधनमुक्त किया और स्वयं लोकशिक्षक बनने की योग्यता पाने के लिये गिरिगिरनार की शिखर पर साधना में लीन हो गये । राजमती ने चाहा, वह वापस घर लौट चलें, परन्तु प्रभ नेमि को लोकका कल्याण करना था। लोक को धूतसुरा और मासके विषेले-परिपाक से बचाना था। यधिष्ठिर के समान सत्योपासक द्य तव्यसन में फसकर अपना सर्वस्व खो रहे थे-महिलाओं की प्रतिष्टा लूटी जा रही थी--जिव्हालम्पटता की पूर्ति के लिये निरपराध पशु-पक्षियों के प्राण घोटे जा रहे थे! यह करुण-दृश्य अरिष्टनेमि के युवक हृदय को मचला देने के लिये काफी था ! उनका हृदय तड़पा-पशुओं का मूक भातनाद उनके दिल में बैठा । उन्होंने घोर तपस्या की और कैवल्यपद पाया । गिरिनार से उन्होंने अपना धर्मोपदेश प्रारम्भ कियाश्रीकृष्ण सहश यादव उनके भक्त थे। लोक विहार करके उन्होंने अहिंसा धर्म का प्रचार किया और गिरिनार से ही मुक्त हुये । ब्राह्मणों के 'यजर्वेद' अ०६ मन्त्र २५ में सम्भवतः इन्हीं तीर्थकर अरिष्टनेमि का उल्लेख है-वह नेमिनाथ जी के नामसे भी प्रसिद्ध थे। उस मंत्रमे इनका स्वरूप निम्न प्रकार वर्णित है"वाजस्यनु प्रसच आवभूवेमाच विश्वभुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियात्ति विद्वान् प्रजां पुष्टि वर्धयमानो ॥"
-अस्मै स्वाहा । 'अर्थात-(स्वाहा ) यह अर्चन उन (अस्मै) प्रभ नेमि (२२) वें तीर्थकर ? को ( समर्पित है, जो) (राजा) केवलज्ञान आदि के प्रम (च) और (विद्वान्) सर्वज्ञ (हैं) (स)