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(३३) तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि और भ० पार्श्वनाथ ! "हरिवंश केतुरनवद्यविनयदम तीर्थनायकः । शीलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिनकुञ्जरोऽजरः ॥"
-श्री समन्तभद्राचार्य । ___"हरिवंशके केतु, पंच विनयों के पालक, पंचेन्द्रिय विजयी, तीर्थनायक शीलधर्म जलनिधि, अभव, अजर, जिनों मे हाथी के सहश प्रधान आदि विशेषणों सहित श्री अरिष्टनेमि तीर्थङ्कर हुये!" . .
नारायण कृष्ण ने जिस हरिवंश अथवा यदुवंश को सुशोभित किया था, उसी वंश के रत्न श्री अरिष्टनेमि थे। वह शौरीपुर में राजा समुद्रविजय के यहाँ जन्मे थे । उनकी माता शिवादेवी थीं । जरासिंधु के साथ जव यादवों का युद्ध हुआ था, तब उसमे अरिष्टनेमि भी यादवसेना के साथ लड़े और विजयी हुये थे। आखिर यादव क्षत्रिय मथुरा और शौरीपुर को छोड़कर द्वारिकामे जा बसे थे। अरिष्टनेमि भी वहाँ ही गये थे। वह श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। सदाचार और शौर्य मे वह सब यादवों से बड़े चढ़े थे। उनकी महान् विजय तो वह थी जब वह विवाह मडप से मुंह मोड़ कर गिरिनार के सहस्राम्रवन में तप तपने चले गये थे। रसभरी रमणी के मोहपाश को जीतना सुगम नहीं-अरिष्टनेमि को सहज ही रमणी रत्न मिल रहा था। किन्तु लोक को विश्वप्रेम का पाठ सिखाने के लिये उन्होंने उसे त्याग दिया। अरिष्टनेमि दूल्हा बने-- उनकी वारात चढ़ी-- राजा उग्रसेन की लाड़ली राजमती अपनी सौन्दर्य-राशि उन पर लुटा देने के लिये तैयार हुई--परन्तु अरिष्टनेमि तोरणद्वार से ही रथ मोड़ कर चलते बने । क्यों ? उन्होंने देखा बहुतसे पशु