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(२६) भगवान् का मोक्षलाभ और निर्वाण-धाम । 'त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिक सत्त्वाशय प्रणमामहितः । लोकत्रयपरमहितोऽनावरण ज्योतिरुज्वलद्धामहितः॥'
~श्रीसमन्तभद्राचार्य. । 'हे वीर । तुम सुरासुरों से वन्दित हो और हो परिग्रह आदि ग्रन्थियों से रहित, उस पर भी लोक के परम हितू हो और निरावरण ज्योति अर्थात् क्षायक ज्ञान ( केवलज्ञान ) से प्रकाशमान उज्ज्वलधाम-मोक्षस्थान को प्राप्त होने वाले हो।' निस्सन्देह श्री समन्तभद्राचार्यजी ने इन शब्दों में ठीक निर्देश किया है। तीर्थंकर भगवान् के दिव्य जीवन मे पंच कल्याणक सुअवसर अनुपम है । मोक्षकल्याणक उनमें सर्व अन्तिम है। यह अवसर व्यक्तिगत दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट है, क्योंकि इस अवसर पर ही पूर्ण आत्मस्वातन्त्र्य व्यक्त होता है व्यक्ति शरीर के कैदखाने से मुक्ति पाता है-उसके वन्धन हमेशा के लिये ट जाते है । भ० महावीर धर्मामृत वर्षा करके कृतकृत्य हो चुके थे। उनको सिर्फ शरीर बन्धन से मुक्त होना शेप था-वह सर्वज्ञ थे, इसलिये आय कर्म के अवसान पर उनकी मुक्ति निश्चित थी। इस सुअवसर पर उनकी आत्मा ने संसार परिभ्रमण का अन्त हमेशा के लिये कर लिया। उन्होंने सिद्ध परमात्मा के दिव्य जीवन का श्रीगणेश किया--महती आत्मपुरुपार्थ की शाश्वत अभिव्यक्ति का सुअवसर उन्हे नसीब हुआ । सिद्धावस्था की विशुद्धता, विज्ञानता, अव्यावाधिता और आत्माल्हादिता का उपभोग करने के लिये वह समर्थ हुये । परमसुख-भोग, अविछिन्न शान्ति एवं अनन्त वीर्य पराक्रम का आनन्द वहाँ