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आह ! हम इन प्रेम सागर के समान कब बनेगे ?" दम्पत्ति वीर प्रभु भगवान् महावीर के चरणों में नतमस्तक होते है और प्रभृ के प्रफुल्लित कमल बदन को देखकर मन में उल्लास और हर्ष का अनुभव करते है ।
आज में लगभग ढाई हजार वर्ष पहले अन्तिम तीर्थङ्कर भ महावीर वर्द्धमान की योग सावना का उक्त चित्रण इस पवित्र भारत मही पर भव्य जनों को देखने को मिला था । भ० महावीर ने योग साधना करके मन-वचन-काय की क्रियाओ को अपने आधीन किया था । वह पूर्ण पुरुष जीवन मुक्त परम आत्मा हुये थे । सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर ही उन्होंने बहके हुये लोक को सत्य-सन्देश दिया था । समाज निर्माण का आधार स्तंभ उन्होंने व्यक्ति को माना था । पुरुष अथवा स्त्री ही वह मौलिक इकाई है जिसके आधार से समाज बनता, बढ़ता अथवा बिगड़ता है । व्यक्ति के सुधार और आत्मोद्धार में ही समिष्टि का अभ्युत्थान अन्तर्निहित है । व्यक्ति अपना सुधार किये विनाअपना ज्ञान पाये बिना, लोक को न जान सकता है और न उसका उपकार कर सकता है। सच देखा जाय तो भ० महावीर ने लोगों को स्वाधीन बनने की शिक्षा दी । कोई भी जीव किसी भी जीव का भला-बुरा कुछ भी नहीं कर सकता । प्रत्येक जीव अपने भाग्य का स्वयं निर्माता और भोक्ता है । अपने जीवन को उन्नत अथवा अवनत प्रत्येक जीव स्वयं बनाता है । इसलिये ही मानव को सावधान करते हुये जगद्गुरु भ० महावीर ने प्रत्येक प्राणी के लिये आवश्यक ठहराया कि वह विचारे (१) कौन सा काल